पहला अध्याय-10
*पहला अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-10
कंसहिं पास जाइ मुनि नारद।
कहत भए अस ग्यान-बिसारद।।
सुनहु कंस ब्रजबासी सगरो।
नंद-गोप,नर-नारी-नगरो।।
बृषनि बंस कै जादव सबहीं।
सँग बसुदेवहिं जे जन रहहीं।।
नंद-देवकी जे जदुबंसी।
सभें सजाती एकहि अंसी।।
बंधु-बांधव सभ जन एका।
रहहिं एक ह्वै जदपि अनेका।।
देवइ अहहिं सकल ब्रजबासी।
सेवक तुम्हरो बनि बिस्वासी।।
बाढ़हिं असुर महा अभिमानी।
कपटी-दंभी,कुटिल-गुमानी।।
पृथ्बी भार न अब सहि पावै।
हर बिधि पापहि बोझ दबावै।।
करहिं तयारी अब सभ मिलि के।
असुरन्ह कै बध होई ठहि के।।
अस कहि नारद गए अकासा।
कंसहिं मन अस भे बिस्वासा।।
सुर अरु देव अहहिं जदुबंसी।
देवकि-गरभ बिष्नु कै अंसी।।
जनम लेइ ऊ मारहिं मोंहीं।
मारब सभें जनम जे होंहीं।।
बान्हि हथकड़ी महँ बसुदेवा।
संग देवकी अपि हरि लेवा।।
डारा तुरत जेल मा ताहीं।
मारत रहा सुतन्ह जे आहीं।।
बेरि-बेरि ऊ संका करही।
अबकि बेरि बिष्नू जनु अवही।।
सुनहु परिच्छित अस परिपाटी।
अहहिं मही-नृप लोभी-ठाटी।।
परम स्वारथी-निर्मम हृदयी।
बधहिं स्वजन निज कारन अभयी।।
बंधु-बांधव,भांजा-भांजी।
मातु-पिता अरु आजा-आजी।।
हतहिं सभें निज प्रानहिं हेतू।
नृप नहिं अहहिं इ राहू-केतू।।
अवगत कंसइ असुर स्वरूपा।
कालनेमि प्रगटा यहि रूपा।।
जेहि का बधे बिष्नु भगवाना।
यहि तें कंस दुसमनी ठाना।।
जदुबनसिन्ह सँग रारि बढ़ावा।
अब-तब उन्हपर बोलै धावा।।
दोहा-उग्रसेन निज पितुहिं कहँ,डारा तुरतहि जेल।
लगा करन सूरसेन पै, ऊ सासन कै खेल।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
*दोहे*
कवि से ही कविता बनी,कविता ज्ञान-प्रकाश।
ज्ञान-ज्योति से हो सदा, तम-अज्ञान-विनाश।।
उगे सूर्य पश्चिम दिशा, कभी न संभव मीत।
वचन न संत असत्य हो,उगले अग्नि न शीत।।
अपनी संस्कृति विश्व में, है अतुल्य-अनमोल।
'विश्व एक परिवार है', का ही बोले बोल।।
रंग-मंच यह विश्व है, लीला नाथ अपार।
अभिनय करता जगत यह,जब हो मंच-पुकार।।
रखें समय का ध्यान हम,समय होय बलवान।
ग्रहण सूर्य-शशि पर लगे,इसकी प्रभुता जान।।
सूर्य-चंद्र दें विश्व को,अपनी ज्योति अनंत।
यही नेत्र द्वय सृष्टि के, कहते ज्ञानी - संत।।
जल का संचय सब करें,जल जीवन-आधार।
जल से ही जलवायु का,हो समुचित संचार।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
चौपाइयाँ*(कोमल)
कोमल हृदय दया की शाला।
कोमल हृदयी व्यक्ति निराला।।
सज्जन-संत-स्वभाव मुलायम।
अपर कष्ट लख रहें नेत्र नम।।
कोमल मन न होय अभिमानी।
निर्मल-सरस-तरल जस पानी।।
प्रेम - भाव - आगार यही है।
जहाँ देव का वास वही है।।
पुष्प सदृश कोमल मन जिसका।
सकल विश्व परिवार है उसका।।
इसे छलावा कभी न भाए।
करे कपट यदि पुनि पछताए।।
कोमलता है देव - निशानी।
कोमल हृदयी होता दानी।।
तन-मन का जो कोमल प्राणी।
होता वही जगत - कल्याणी।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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