डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *दूसरा*-1
  *दूसरा अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-1
उग्रसेन रह नृप अधिनायक।
अंधक बंस भोज जदु-नायक।।
    कंस तासु सुत बड़ बलवाना।
    मनबढ़-छली,अबुध-अग्याना।।
पितु सँग कपटयि कीन्हा कंसा।
राज-लोभ मा पिता बिधंसा।।
    मगधइ नृप सँग कीन्ह मिताई।
    जरासंध रह नाम जे पाई।।
द्विबिद-पूतना-केसी-धेनुक।
असुर अरिष्टहिं-मुष्टिक बेतुक।।
   तिरिनाबर्त-बकासुर-बाणा।
   असुर प्रलंब-अघासुर-चाणा।।
भौमासुर जस दैत्यहि राजा।
कंसहिं सँग रह सकल समाजा।।
   जदुबनसिन कहँ सभें सतावैं।
   मारहिं-पीटहिं बंस मिटावैं।।
कुरु-पंचाल व साल्व-बिदर्भा।
निषध-बिदेहहि, कोसल-गर्भा।।
    कैकय देस भागि सभ रहहीं।
    डरि-डरि के जदुबंसी सबहीं।।
यहि बिच कंस अघी-हत्यारा।
देवकि छे सुत मारहि डारा।।
    सप्तम गरभ देवकी धारा।
    जेहि मा सेष अनंत पधारा।।
सेष अनंत पाइ निज गर्भा।
स्वतः देवकी भईं प्रगल्भा।।
    हर्षित चित-मन हर-पल मुदिता।
    मुख-मंडल जनु रबि-ससि उदिता।।
पर ऊ जानि रहहिं घबराई।
इनहिं हती पुनि कंसइ धाई।।
    बढ़ा छोभ मन-उरहिं अपारा।
    बस ताकर अब प्रभू अधारा।।
जदुबनसिन कर नाथ सहायक।
तदपि सतावै कंस अनाहक।।
दोहा-निज माया कल्यानिहीं,कहे बुला तब नाथ।
        जाउ तुरत ब्रज मा अबहिं, माया-बल लइ साथ।।
                    डॉ0हरि नाथ मिश्र
                     9919446372


दोहे*(गुरु)
गुरु-गरिमा गंभीर अति,गुरु ही ईश समान।
समझे जीवन को मनुज,पाकर गुरु से ज्ञान।।

गुरु वशिष्ठ से  मंत्र  ले,बने  राम  भगवान।
लेकर गुरु से  सीख ही,होता मनुज महान।।

गुरु-कुम्हार माटी लिए, गढ़े  शिष्य-घट  ठोस।
शिष्य-शुष्क-तरु हरित हो,चख गुरु-वाणी-ओस।।

तन-मन तो विधि का रचा,गुरु गढ़ता व्यक्तित्व।
केवल  ही  गुरु-कृपा  से,सफल रहे अस्तित्व।।

करें नमन शत-शत सदा,गुरु चरणों को मीत।
गुरु  के  आशीर्वाद  से, घटे  मूढ़ता - शीत।।

करना है भव-मंच पर,सकल कर्म अभिनीत।
गुरु के ही आशीष से, जीवन  बने  अभीत।।

गुरु ब्रह्मा,गुरु विष्णु ही,गुरु शिवशंकर जान।
स्वयं ब्रह्म गुरु को समझ, हे  मूरख  इंसान।।
              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                   9919446372

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