डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पहला अध्याय-8
  *पहला अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-8
सुनहु कंस ई भगिनी तोरी।
तव तनया सम थोरी-थोरी।।
    सद्यहि भवा बिबाह यही कै।
    मंगल-चिन्ह न मिटा कहीं कै।।
ताकर उचित नहीं बध करना।
तुम्ह सम दीनबंधु जे अपुना।
    पुनि सुकदेव कहत अस भयऊ।
     कंसहि बहुबिधि बसु समुझवऊ।।
भयहि-भेद अरु साम-प्रसंसा।
पुनि-पुनि कीन्ह कंस-अनुसंसा।।
     पर नहिं कंसा केहु बिधि माना।
      देवकि-बध निज मन रह ठाना।।
जलन-दंभ-हठ खलहिं सुभावा।
कपट-कुटिलता भरा छलावा।।
    तब बिचार बसुदेवहिं कीन्हा।
     केहु बिधि बध-अवसर नहिं दीन्हा।।
जे जन प्रबुध-बिबेकी अहहीं।
निज प्रयास करि संकट टरहीं।।
     टरै न संकट जदि केहु भाँती।
     दोसी नहीं,नहीं ऊ घाती ।।
दोहा-अब मैं देबउँ निज तनय,दुष्ट कंस के हाथ।
          प्रान बचाइब देवकी, बिधिना दैहैं साथ।।
          होई जब मोरे सुतय, कंसहि जनु मरि जाय।
          बिधि-बिधान जनु मोर सुत,कंसहि मारि गिराय।।
                        डॉ0हरि नाथ मिश्र
                         9919446372

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