*राही*
*पथिक*
मिलेगी मंज़िल निश्चित राही, मत घबराना रे!
पथिक तुम चलते जाना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
सूरज तपे, शरद हिम बरसे,
गगन से बरसें बरसातें।
बिजली चमके,तड़के फिर भी-
चलते जाना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
देखो,सूरज नित उगता है,
चाँद कला है दिखलाता।
सुमन हवा सँग मिल के लुटाए-
गंध-खज़ाना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
आया समय नहीं पुनि आए,
अब या तब सब काल समाए।
जीवन का भी रहता कोई-
नहीं ठिकाना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
यात्रा कठिन दूर मंज़िल है,
राहें जटिल हैं पथरीली।
नहीं मिले यदि सुख-सुबिधा-
तो थक मत जाना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
अभी नहीं तो कभी मिलेगी,
निश्चित तेरी मंज़िल भी।
दृढ़ संकल्पित होकर राही-
तीर चलाना रे, पथिक तुम चलते जाना रे!!
सतत परिश्रम करने पर भी,
फल मिलता विपरीत कभी।
फिर भी होके विफल-थकित-
मत अश्रु बहाना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
मोती मिलता उसी को राही,
लहरों सँग जो नित लड़ता।
सिंधु-भीरु के हाथों लगता-
बस पछताना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
तुम हो धन्य,सुनो,रे मानव!
प्राणी श्रेष्ठ बने जग के।
अपने कर्म का वादा कर के-
भूल न जाना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
पथिक तुम चलते जाना रे!!
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
*कुण्डलिया*
अपनी संस्कृति अति भली,वेद-ज्ञान-गुण-मूल,
औषधीय गुण युक्त यह,हरे सकल भव-शूल।
हरे सकल भव - शूल, सिखाती मानवता को,
सद्गुरु का दे ज्ञान, भगाती दानवता को।
कहें मिसिर हरिनाथ, करे यह दुर्गुण-छँटनी,
परम पुनीता यही, विशुद्ध संस्कृति अपनी।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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