डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*राही*
                 *पथिक*
मिलेगी मंज़िल निश्चित राही, मत घबराना रे!
पथिक तुम चलते जाना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
         सूरज तपे, शरद हिम बरसे,
         गगन से बरसें बरसातें।
         बिजली चमके,तड़के फिर भी-
चलते जाना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
           देखो,सूरज नित उगता है,
           चाँद कला है दिखलाता।
           सुमन हवा सँग मिल के लुटाए-
गंध-खज़ाना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
           आया समय नहीं पुनि आए,
            अब या तब सब काल समाए।
            जीवन का भी रहता कोई-
नहीं ठिकाना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
            यात्रा कठिन दूर मंज़िल है,
            राहें जटिल हैं पथरीली।
            नहीं मिले यदि सुख-सुबिधा-
तो थक मत जाना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
             अभी नहीं तो कभी मिलेगी,
              निश्चित तेरी मंज़िल भी।
              दृढ़ संकल्पित होकर राही-
तीर चलाना रे, पथिक तुम चलते जाना रे!!
              सतत परिश्रम करने पर भी,
              फल मिलता विपरीत कभी।
              फिर भी होके विफल-थकित-
मत अश्रु बहाना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
              मोती मिलता उसी को राही,
              लहरों सँग जो नित लड़ता।
               सिंधु-भीरु के हाथों लगता-
बस पछताना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
               तुम हो धन्य,सुनो,रे मानव!
               प्राणी श्रेष्ठ बने जग के।
               अपने कर्म का वादा कर के-
भूल न जाना रे,पथिक तुम चलते जाना रे!!
               पथिक तुम चलते जाना रे!!
                      ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                      9919446372
*कुण्डलिया*
 अपनी संस्कृति अति भली,वेद-ज्ञान-गुण-मूल,
 औषधीय गुण युक्त यह,हरे सकल भव-शूल।
हरे सकल भव - शूल, सिखाती मानवता को,
सद्गुरु का दे ज्ञान, भगाती दानवता को।
कहें मिसिर हरिनाथ, करे यह दुर्गुण-छँटनी,
परम पुनीता यही, विशुद्ध संस्कृति अपनी।।
              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                 9919446372

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