*दोहे*(सुगंध)
यद्यपि लिपटे नित रहें,विषधर-कृष्ण भुजंग।
तदपि नहीं त्यागे कभी, चंदन-वृक्ष सुगंध।।
बहे फागुनी पवन जब, आए मस्त वसंत।
भाए नहीं सुगंध पर,नहीं संग जब कंत।।
भ्रमर मस्त मकरंद ले, छेड़ें मधुरिम तान।
पा सुगंध वन-बाग की,करे कोकिला गान।।
पुष्प-इत्र-पकवान की, प्यारी लगे सुगंध ।
बिन देखे मन मुदित हों,उनके भी जो अंध।।
हो सुगंध-अनुभूति जब,भव-चिंतन हो दूर।
पाएँ तन-मन परम सुख, बरसे नभ से नूर।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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