डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*गीत*(पृथ्वी/धरा)
कहे धरा अब हाथ जोड़कर,
आओ लाल बचा लो मुझको।
नहीं रहूँगी तो क्या होगा-
आता नहीं समझ में तुझको??

देखो हवा बहे जहरीली,
जल का स्तर घटता जाए।
नहीं ठिकाना शरद-ग्रीष्म का,
सिंधु-नीर भी बढ़ता जाए।
वन-वृक्षों का रूप भयावह-
द्रवित नहीं क्या करता सबको??
       आता नहीं समझ में तुझको??

नहीं हवा जब शुद्ध बहेगी,
नहीं नीर भी मिल पाएगा।
ऋतु वसंत जब नहीं रहेगी,
पुष्प बाग क्या खिल पाएगा?
क्या होगा जब नदी न होगी-
इसका क्या आभास न जग को??
       आता नहीं समझ में तुझको??

अभी वक़्त है मुझे बचा लो,
वरन, सभी जन पछताओगे।
जीना दूभर होगा इतना,
बिना अन्न-जल मर जाओगे।
मैं हूँ तो अस्तित्व है तेरा -
कहती फिरूँ सतत जन-जन को।।
     आता नहीं समझ में तुझको??

जल से जीवन,जीवन से जग,
अखिल जगत मेरे सीने पर।
नदी नहीं तो नीर नहीं है,
जीवन बचता जल पीने पर।
सभी बचा लो वन-वृक्षों को-
कहती पृथ्वी खोजो हल को।।
    आता नहीं समझ में तुझको??
             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                 9919446372


तीसरा-6
  तीसरा अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-6
सुनु हे देबी कह भगवाना।
भवा जगत जब तुम्हरो आना।।
    प्रथम जनम मन्वंतर भवई।
    पहिला नाम प्रिस्न तव रहई।।
प्रजापती सुतपा बसुदेवा।
नामहिं तासु सकल जग लेवा।।
    दोऊ जन रह सुचि उरगारी।
    दिब्य रूप प्रभु परम पुजारी।।
लइके ब्रह्मा कै उपदेसा।
देउ जनम संतान निदेसा।।
    दोऊ जन हो इन्द्रिय-निग्रह।
    कीन्ह तपस्या प्रभुहिं अनुग्रह।।
बायुहिं-घाम-सीत अरु बरसा।
गरमी सहत रहेउ चित हरषा।।
   करत-करत नित प्रणायामा।
   कियो हृदय-मन अति सुचि धामा।।
सुष्क पात खा,पवनहिं पाना।
चितइ दूइनू सांति-निधाना।।
     तुम्ह सभ कियो अर्चना मोरी।
     सीष झुकाइ उभय कर जोरी।।
दस-दूइ-सहस बरस देवन्ह कै।
कीन्ह तपस्या तुम्ह सूतन्ह कै।।
    सुनहु देबि हे परम पुनीता।
     दुइनउ जन लखि भगति अभीता।।
तव अभिलाषा पूरन हेतू।
प्रगटे हम हे नेह निकेतू।।
    माँगेयु तुम्ह सुत मोरे जैसा।
     रचा खेल अद्भुत मैं ऐसा।।
तुम्ह न रहेउ रत भोग-बिलासा।
रही नहीं सन्तानहिं आसा।।
    बर व मोच्छ नहिं हमतें माँगा।
    माँगा सुत जस मोंहि सुभागा।।
'एवमस्तु' कह तब मैं निकसा।
तुम्ह सभ भए भोग-रत-लिप्सा।।
     'प्रश्निगर्भ' तब रह मम नामा।
      माता-पिता तुमहिं बलधामा।।
दूसर जनम 'अदिति'तुम्ह रहऊ।
कस्यपु मुनि बसुदेवइ भयऊ।।
    तबहूँ रहे हमहिं सुत तोरा।
    नाम 'उपेंद्र'रहा तब मोरा।।
अति लघु तन तब मोरा रहई।
'बामन'मोंहि जगत सभ कहई।।
     पुनि मम जनम भवा जब तीसर।
      सुनहु देबि मैं कृष्न न दूसर।।
तव समच्छ प्रगटे यहि रूपा।
भूलउ ताकि न मोंहि अनूपा।।
दोहा-भाव देवकी तुम्ह सबहिं,रखेउ पुत्र अरु ब्रह्म।
         मोरे सँग श्रद्धा सहित,बिनू भरम अरु मर्म।।
                        डॉ0हरि नाथ मिश्र
                          9919446372

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