पहला अध्याय-7
*पहला अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-7
भोज-बंस कै तुमहिं अधारा।
एकमात्र बंसज होनहारा।।
बड़-बड़ सूर-बीर-बलवाना।
तुम्हरो जसु गावहिं बिधि नाना।।
अहहि एक ई अबला नारी।
दूजे ई तव बहिना प्यारी।।
तीजा मंगल-परिनय-अवसर।
यहि का बध नहिं होई सुभकर।।
सुनहु बीरवर धरि के ध्याना।
होय जनम सँग मृत्युहिं आना।।
आजु होय वा कबहूँ होवै।
कहहुँ साँच ई होवै-होवै।।
होवै जब सरीर कै अंता।
धरहि जीव बपु अपर तुरंता।।
जिव तन तजै करम अनुसारा।
जस पग-चापहि उठै दुबारा।।
तजहि तिरुन जबहीं जल-जोंका।
अपर तिरुन कै मिलतै मौका।।
कबहुँ-कबहुँ नर जाग्रत-काले।
बैभव चहइ इंद्र कै पा ले।।
भाव-बिभोर मगन ह्वै सोचै।
निज विपन्न गति सपन बिमोचै।।
बिसरै जनु अस्थूल सरीरा।
अमरपुरी-सुख लहहि अधीरा।।
भूलै जीव अइसहीं देहा।
कर्म-कामना विह्वल नेहा।।
प्रबिसहि अपर सरीरहि जीवा।
कइके प्रथम बपू निरजीवा।।
जीव क मन बिकार-भंडारा।
इच्छा-तृष्ना-बिषय-अगारा।।
जेहि मा अंत समय मन रमई।
ताहि सरीर जीव पुनि धरई।।
चंचल जीव समीरहि नाई।
जल बिच ससी-रबी-परिछाँई।
इत-उत हिलै पवन लइ बेगा।
वइसइ रहै जीव संबेगा।।
रहइ जीव जग जे-जे देहा।
रखइ मोह,मानै निज गेहा।।
यहि सरीर कै आवन-जावन।
भ्रम बस समुझइ निजहि करावन।।
जे चाहसि जग निज कल्याना।
करिव न द्रोह कबहुँ अपमाना।।
दोहा-द्रोही जन भयभीत रहँ, सत्रुन्ह तें यहि लोक।
मरन बाद डरपहि उहइ, जाइ उहाँ परलोक।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें