*बेटी की पाती मॉं के नाम*,
*विधा में थोड़ा लिया घुमाव*
*गद्य में तो पत्र सभी लिखते*
*मैंने पद्य को बनाया आयाम*।
*दि०९-०४-२१ *अजमेर*
*श्रद्धेय मॉं*
*सादर चरण स्पर्श*
मॉं प्यारी मॉं
जानती हूॅं,तुझे चिंता
बहुत है मेरी
पर...जताती नहीं
नानी को भी होती थी
चिंता तेरी
वो भी तो कहॉं जता
पाती थी
घर में दादा,बाबा,काका
के होते
सदियों यही तो
होता आया था
घर के बीचोंबीच
था तुलसी चौरा
और एक मंदिर जिसमें
स्थापित कुल देवी थीं
हर बार बरस के तीन
नवरात्रें मनाए जाते थे
बड़ी श्रद्धा से
सब शीश नवाते थे
पर... .....
मॉं सच सच बताना
क्या नारी को भी वो इतना
ही सम्मान देते थे?
नहीं मॉं झूठ नहीं कहना
तेरी ऑंखों के कोर में
अटका तेरी भावों का मोती
गिरता नहीं पर
मनोदशा सब दर्शा देता था
सबके सामने नहीं
हॉं आधी रात
मेरे बिस्तर पर बैठ
मेरा सर सहला देना
मुझे हिला देता था
पर मॉं चिंता मत कर
मैं यहॉं ससुराल में
स्वस्थ हूॅं,सुरक्षित हूॅं
सबसे बड़ी बात
यहॉं मैं तेरी ही तरह
हर भाव ऑंसूं पीकर
रहती हॅं।
मुझे याद है वो
चॉंद-सितारों की साक्षी में
सप्तपदी पश्चात्
तेरा मुझको चंद बातों में
शिक्षा दे वादा लेना....
*धरा की सहनशीलता,पर्वतकीदृढ़ता,नीर की निर्मलता,आकाश कीअसीमता के साथ मैं थोड़ीअग्नि तत्व तुझे देतीहूॅं,बेटी मान,सम्मान,संस्कार,संस्कृति,गरिमा सदा बनाए रखना*
देख न मॉं ,कुछ नहीं भूली ,विवाह की आज दसवीं
सालगिरहा में
कोख की जमीन पर
अजन्मी बेटी की
आठवीं कब्र खोद आई हूॅं,
फिर भी *अचल,सहनशीला,निर्मला,असीमा हूॅं*
बस.......वो आग जो
तूने मेरे सीने में रख दी थी
उसे ही सुलगाए हुए
भीतर ही भीतर सुलग रही हूॅं,
बह रही है,गंगा-यमुना
हृदय तल में
जज्बात जज्ब हैं
कहीं अतल गहराई में,
नैसर्गिक धड़कन ह
धड़क कर मेरे
जीवित होने की साक्षी है
पर मॉं तू फिकर मत कर
अभी ही आई अस्पताल से
और फिर .. ....
स्नान-ध्यान कर
सहनशीलता का वसन
ओढ़,लग गई हूॅं,
फिर से घर सजाने को
कल से नवरात्रें
शुरु होने वाले हैं न ..
तो लानी है देवी मॉं
जो सबसे सुंदर,विशाल और
पवित्र होगी,
जिसकी स्थापना करनी है।
देख न मॉं मैनें तेरी,
नानी की,परनानी की
सबकी फरंपरा को बचाए
रखा है
कुछ बदलने नहीं दिया,
बस....एक बात जो
आज तुझे बता रही हूॅं
मैंने इस परंपरा को आगे
बढ़ने से रोक दिया है
मैं नहीं चाहती
मेरी बेटी भी ,फिर
उसी परंपरा को निभा
भीतर ही भीतर सुलगती रहे।
हॉं प्रण अपने आप से
ले लिया,...
*कि अबकी बार मेरी बेटीजबमेरी कोख मेंआएगी,तबदफ्न नहीं करुॅंगीउसे कोख की कब्र में,सारे वचन ओढ़कर भी मैंस्वतंत्र अमीमहो जाऊॅंगी और अकेले रह कर ही सही बेटी को उसका आकाश दूंगी,दूंगी उसको उसके हिस्से की धूप और धरा,बहने दूंगी उसे निर्मल नीर सी हवाओं के बहाव में*।
सच मॉं जबसे मन ही मन
ये प्रण लिया है,
मैं हल्कापन महसूस कर
रही हूॅं,
बस इस बार के व्रत
सब उस अजन्मी बेटी के लिए।
बाकी सब ठीक है,
तुम्हारे दामाद
चरण-स्पर्श कहे हैं
बाबा को मेरा प्रणाम
भाई-भाभी को स्नेह
(बस आखरी बात मॉं
भईया की बिटिया और
भाभी को उनका दाय देना,
कभी नारी होने की
विवशता और पीड़ा में
उन्हें न घुलने देना )
सब मैं बोल सकती थी
फोन पर मॉं,
पर जानती हूॅं शब्द हवा
हो जाते
पर मेरा ये पत्र तुम
भाभी को जरुर पढ़ाना।
आपकी सोभागवती बेटी
डा. नीलम
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें