खत्म होने ही लगे थे जब ख़ज़ाने मेरे।
खर्च मुझको तब लगे फौरन डराने मेरे।
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बेतरह बढ़ने लगी दुनिया में है महँगाई।
ख्वाब भी तो हैं अधूरे को सजाने मेरे।
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क्या करूं खरचे नहीं पड़ते कभी पूरे हैं ।
जबकि बच्चे भी लगे हैं अब कमाने मेरे।
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कीं गुजारिश थीं खुदा से मैंने तो पहले भी।
पर नहीं उसने सुने कोई फसाने मेरे।
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खर्च के भी नाम पर बचने लगा हूं अब मैं।
और दुनिया भी समझती है बहाने मेरे।
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सुनीता असीम
४/४/२०२१
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