सुनीता असीम

खत्म होने ही लगे थे जब ख़ज़ाने मेरे।
खर्च मुझको तब लगे फौरन डराने मेरे।
***
बेतरह बढ़ने लगी दुनिया में है महँगाई।
ख्वाब भी तो हैं अधूरे को सजाने मेरे।
***
क्या करूं खरचे नहीं पड़ते कभी  पूरे हैं ।
जबकि बच्चे भी लगे हैं अब कमाने मेरे।
***
कीं गुजारिश थीं खुदा से मैंने तो पहले भी।
पर नहीं उसने सुने कोई फसाने मेरे।
***
खर्च के भी नाम पर बचने लगा हूं अब मैं।
और दुनिया भी समझती है बहाने मेरे।
***
सुनीता असीम
४/४/२०२१

कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...