खाली तख़त काटने को दौड़े मन व्याकुल है उर बेज़ार, बबुआ संग शहर चले गये सब जन हो तैयार।

खाली तख़त काटने को दौड़े मन व्याकुल है उर बेज़ार।
बबुआ  संग  शहर  चले  गये  सब  जन  हो  तैयार।

कल मुस्काया था जी भर कर 
पलकें रहीं निहार।
बबुआ संग शहर चले गये  
सब जन हो तैयार।

छोड़ गांव सब चले गये दादी दादा संग अबीर गुलाल।
प्रेमभरी उनके पाती से रंगी पड़ी है घर की सब दिवाल।

ऐसी भरकर रंग पिचकारी से 
जीवन दिया संवार।
बबुआ संग शहर चले गये  
सब जन हो तैयार।

एक साथ मिल सब परिवारें व्यंजन खाते पिते हैं।
प्रेम रंग में डूबे थे सब जन  दादा - दादी  जिते  हैं।

काश घड़ी तूं रूक भी जाती तो
होली होती जीवन उद्धार।
बबुआ संग शहर चले गये  
सब जन हो तैयार।

महक गयी थी घर की बगिया अश्क छुपा रहें हम।
गुझिया खोवे से भरी पड़ी है निकल रहे हैं जैसे दम।

ममता सब में भरी रहे 
ले होली का प्यार।
बबुआ संग शहर चले गये 
सब जन हो तैयार।

 दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

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