नाम-रवि प्रताप सिंह
पिता का नाम-स्व.शेर बहादुर सिंह
माता का नाम-स्व.नंदेश्वरी सिंह
जन्म तिथि- 8 फरवरी 1971कानपुर (उ.प्र.)
पुस्तैनी निवास- ग्राम:असहन जगतपुर,बछरावां, जिला-रायबरेली(उ.प्र.)
पैतृक आवास- बाईपास रोड, नवाबगंज, जिला-उन्नाव(उ.प्र.)
वर्तमान आवास- 14,आशुतोष घोष लेन,मृणालिनी रेजीडेन्सी-||,फ्लैट न.4सी,चौथा तल्ला,पो-श्रीभूमि,कोलकाता-700048(प.बं.)
लेखन विधाएँ-ग़ज़ल,गीत,कविता,लघु कथा एवं कहानियाँ ।
साहित्यिक गतिविधियाँ-कोलकाता दूरदर्शन,आकाशवाणी,ताजा टी.वी. इत्यादि पर साहित्यिक एवं काव्य गतिविधियों में सक्रिय सहभागिता। प्रतिनिधि समाचार पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। काव्य मंचों पर अनवरत भागीदारी ।
विशेष अभिरुचि-पत्रकारिता ।
अनुवाद-कुछ रचनाएँ हिन्दी से बंगला भाषा में अनुदित एवं प्रकाशित ।
संस्था-संस्थापक अध्यक्ष 'शब्दाक्षर' साहित्यिक-साँस्कृतिक संस्था ।
सम्मान- 'सृजन रत्न सम्मान', 'राजभाषा सम्मान', 'आर्य कवि सम्मान', आई. आई.खड़गपुर 'टी.एल.एस.सम्मान', 'गंगा मिशन सम्मान', 'साहित्य मंजरी सम्मान', 'प्रवज्या सम्मान',रविन्द्र नाथ ठाकुर सारस्वत साहित्य सम्मान','कवितीर्थश्री सम्मान', 'कवि कुम्भ सम्मान' तथा 'महाकवि कुम्भ' सम्मान से सम्मानित।
संप्रति-रेलसेवा।
मोबाइल-8013546942
ई-मेल-singh71rp@gmail. com
ऋतु बसंती आ गयी मौसम गुलाबी हो गया।
रंग के छींटे पड़े चेहरा शराबी हो गया।
मद भरे वातावरण में छा गईं मदहोशियां,
दिल फ़क़ीरों का भी होली में नवाबी हो गया।
अनुछुआ तन छू गयी जब फागुनी चंचल पवन,
शब्द चित्रित देह का अंतस किताबी हो गया।
चक्षु की भाषा मुखर कुछ इस तरह से हो गयी,
मौन का हर पक्षधर हाज़िर-जवाबी हो गया।
काम ने रति के कपोलों पर मला ऐसा गुलाल,
गौरवर्णी रूप तपकर आफ़ताबी हो गया।
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(रवि प्रताप सिंह,कोलकाता,8013546942)
वो निशाने पे सजी मिसाइलें
पहाड़ से टूटे पत्थरों की भाँति
गोदामों में पड़े परमाणु बम !
सब के सब हो गए भोथरे
एक अदृश्य विषाणु के सामने !
परिंदों को पिंजडों
में कैद करने का शौक़ीन आदमजात
फड़फड़ाने लगा अपने ही बनाये दड़बों में
एक शब्द लॉकडाउन बन गया
सभी भाषाओं का इकलौता पर्यायवाची
बुल्गारिया से लेकर होनूलुलू तक
इस एक शब्द ने घेर ली जगह शब्दकोशों में
शनै शनै मद्धिम पड़ने लगेगी
लॉकडाउन शब्द की गूँज
जैसे दूर वादियों में गूंजती
आवाज दम तोड़ने
लगती है धीरे-धीरे !
रहेगा वही
दमकता हुआ
चेहरा दुनिया का !
या फिर धरती भी
हो जायेगी दागी चाँद जैसी !
वो बस अड्डों की भीड़-भाड़
लोकल ट्रेनों की धक्का-मुक्की
वो कारों के चीखते हार्न
ऑटो में खूबसूरत बदन से बदन
रगड़ने का क्षणिक सुख
पार्क में दिन-दिन भर
गुटरगूँ करते प्रेमी जोड़े
गर्ल्स हॉस्टल के चौराहे पर
एक सिगरेट शेयर करते
पांच जवां होंठ !
क्या बन जायेंगे
किसी युवा उपन्यासकार के
उपन्यास का कथानक !
सुनाया करेगा कोई
नया नया सेवानिवृत्त हुआ बाबू
मोहल्ले में नये नये जवान हुए
छोकड़ों को अपनी आप बीती !
अभी मरा नहीं है वो रक्तबीज
जिसने पैदा किया है
दुनिया भर में ईज़ाद एक शब्द लॉकडाउन !
कब कहाँ कोई मानव बम फटेगा
बिखर जायेगा
बारूद बन कर !
वो अदृश्य राक्षस
जिससे बचने के लिए
सुस्ताने लगे सारी गाड़ियों चक्के
चैन की सांस लेने लगीं रेल की पटरियाँ
पर कब तक रहेगी ऐसी दुनिया
क्या फिर से रहेगी वही दुनिया
जैसी थी लॉकडाउन के पहले !!
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(रवि प्रताप सिंह,कोलकाता,8013546942)
'साल भर का मौसम'
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माँ ने एक दिन खुश होकर
एक रूपया मेरी छोटी-सी हथेली पर
प्यार से रख दिया था
मैं बाजार की ओर सरपट दौड़ा
मैंने दस पैसे की धूप और
चार आने की बारिश खरीदी
पन्द्रह पैसे उस दुकान के लिए
रख छोडे, ज़हाँ
कड़कड़ाती ठण्ढ बिकती थी
बसंती बयार पर भी चार आने लुटाये
बाकी बचे चार आने,
सावन और पतझड पर उड़ाये.
उस दिन माँ ने मुझे आंचल में छुपाकर
मेरी बुध्दिमत्ता को माना था,
एक रूपये में साल भर का
मौसम मिलता है,
मैंने पहली बार जाना था |
........(रवि प्रताप सिंह)........
-----तुम आये-----
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तुम आये तो पत्थरों से स्वर फूटे
तुम आये तो धूप ने छाया दे दी
तुम आये तो सरिता हुई सागर
तुमने सिखलाया
सूरज को शीतल होना
चाँद को तपना
फूलों को हँसना
पहाड़ों ने तान छेड़ी
झरनों ने गीत गाये
जब तुम आये
तुम्हारे आने से बहुत कुछ बदला जिंदगी में
सोना-जगना
रोना-गाना
खाना-पीना
यूँ ही जीना
और भी बहुत कुछ !
क्या कुछ नहीं बदला तुम्हारे आने से
हाँ……
नहीं बदला तो साँसों का आना-जाना
पंछियों से बातें करना
अकेले में चुप रहना
भीड़ में गुनगुनाना
देखकर भीगी पलकें
आँखों का नम हो जाना
जिंदगी का व्याकरण तुम्हीं से सीखा मैंने
कितने मायने होते हैं जिंदगी शब्द के तुम से ही जाना
छोटे से दिल का भूगोल कितना विस्तृत है
हृदय के स्पंदन पर उँगलियों के पोर रख समझाया था तुमने ही
तुम्हीं ने बताया था कि आँखे बोलती भी हैं
अधरों की थरथराहट सिर्फ कम्पन न होकर तृष्णा तृप्ति का मौन आमंत्रण भी है
तुम आये तो बहुत कुछ अजाना जाना मैंने
फिर एक दिन ……
चुपचाप चले गये जिंदगी से तुम
हो गया सबकुछ यथावत पहले जैसा
जैसा था तुम्हारे आने से पहले|||
..........(रवि प्रताप सिंह)..........
7.
ये धरती न होती है ये अंबर न होता।
ये पर्वत न होते ये समंदर न होता।
जगत वाटिका में न होती खिली तुम,
किसी बाग में कोई मधुकर न होता।
नूपुर छन-छना-छन न बजते तुम्हारे,
झरनों में झंकृत मधुर स्वर न होता।
दिवस-रात्रि का क्रम न होता धरा पर,
नभ में भी शशि और दिवाकर न होता।
सुशोभित न होता नयन में जो काजल,
तो 'रवि' ने लिखा एक अक्षर न होता।
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