काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार नाथ मिश्र

 परिचय


नाम                   :  समरनाथ मिश्रा

पिताजी का नाम    :  श्री रामकृष्ण मिश्रा

माता जी का नाम   :  श्रीमती बबीता मिश्रा

जन्म तिथि           :  12 जनवरी 1982

शिक्षा                  :  विज्ञान संकाय में स्नातक

मोबाइल नं.           :  7999497053

ई मेल पता            :  samarnathmishra1982@gmail.com

प्रकाशित पुस्तक     : समर स्पंदन ( ISBN - 978-93-90223-32-9)


रचनाएं

१.

कैसे कह दूँ , तुम यहाँ नहीं ।।


मेरे हृदय के परिव्यास में

कोई ठौर नहीं , तुम जहाँ नहीं ।।


कैसे कह दूँ , तुम यहाँ नहीं ।।


चित में तुम , तुम चिंतन में

अवरोहारोह के प्रतिक्षण में

प्रतिक्षातुर दृग दर्पण के

तुष्टि में , स्वार्थ , समर्पण में

उत्कण्ठा में , उत्प्रेरण में

विस्मृति में हो , हो सुमिरन में

व्याप्त समर में नखशिखांत

प्रसरण में , अवगुंठन में


जीवन के बिखरे पृष्ठों में

प्रियतम मेरे ! तुम कहाँ नहीं ।।


कैसे कह दूँ , तुम यहाँ नहीं॥


मेरे  हृदय  के ;  परिव्यास में 

कोई ठौर नहीं,  तुम जहाँ नहीं ।

कैसे कह दूँ , तुम यहाँ नहीं॥


गीत मे तुम , तुम गुञ्जन में 

स्मृतियों के स्वर व्यञ्जन में 

लिप्साओं  के  आलिंङ्गन में 

आशाओं  के  उर -स्पंदन में 

अश्रु  से  धुलकर  रचे  हुए 

अँखियों के श्यामल अंजन में 

मदन मदिर  मुस्कानों  से

इन अधरों के रति रञ्जन में 


इन भावों में ; अनुभावों में

कोई तौर नहीं  , तुम जहाँ नहीं ।

कैसे कह दूँ  ; तुम यहाँ नहीं ।।


पतझड़ में तुम  , तुम सावन में 

तुम ग्रीष्म के मुकुलित यौवन में 

हो  शुभ्र  शिशिर  के  शैशव में 

हुलसित हेमन्त के बचपन में 

तुम  वर्षा  के  भीगे  रागों  में

औ शीत की कामुक ठिठुरन में 

शरद  शील  कौमार्य  में  तुम 

तुम हर ऋतु के आकर्षण में 


खिले बसन्त में , मन-तरु पर

कोई  बौर नहीं , तुम जहाँ नहीं ।

कैसे कह दूँ  , तुम यहाँ नहीं ।।


कैसे कह दूँ  ,  तुम यहाँ नहीं ।।


२.

लेखनी मशाल है


निज रश्मियां पुनीत ले,

जो तिमिर को जीत ले.

पथ प्रशस्त जो करे,

वो लखनी मशाल है !!


जो तीक्ष्ण तीव्र दक्ष हो,

तटस्थ हो, निष्पक्ष हो,

जो बात न्याय की करे,

वो लेखनी मशाल है !!


जो सत्य का सिपाही हो,

रक्त जिसकी स्याही हो,

कटे मगर झुके नहीं,

वो लेखनी मशाल है !!


मन से भय निकाल दे,

लहू मे जो उबाल दे,

” समर ” का आह्वान जो,

वो लेखनी मशाल है !!


आईना हो समाज का,

साक्षी कल और आज का,

जो काल से कला करे,

वो लेखनी मशाल है !!


जो मिटाती भ्रान्तियां,

जो बुलाती क्रान्तियां,

कायाकल्प जो करे,

वो लेखनी मशाल है !!


आक्रान्त जिससे ताज हो,

जो “आम ” की आवाज हो,

निरीह का मशीह जो,

वो लेखनी मशाल है !!


लो लक्ष्य पर सटीक हो,

जो विजय प्रतीक हो,

सतत चलायमान जो,

वो लेखनी मशाल है !!


३.


प्रसंग : ब्रम्हर्षि विश्वामित्र दैत्य उपद्रव से आकुल हो राजा दशरथ से आश्रम रक्षार्थ राम लक्ष्मण को माँगने आते हैं ।


समाचार सुन धावत आए , अयोध्यापति दरबार में ।

किए दण्डवत बोले - " ऋषिवर ! प्रस्तुत हुँ सत्कार में ।।


" आज धन्य ना मुझसा कोई , मंगल सदा महेश धरें ।

किसविध सेवा करूँ महर्षि! सेवक को आदेश करें ।।"


बोले ब्रम्हर्षि " बड़े उपद्रव , करते सुबाहू औ मारीच ।

यज्ञ कर्म व्यवधान करें ये , निश्चर निकर नराधम नीच ।।"


बोले अजसुदन भृकुटि तान , " तत्क्षण सेना भिजवाता हूँ ।

आततायी इस खल दल बल को , मृत्यु मिलन कराता हूँ ।।"


कहे  ऋषिराई " महाराज यह , सरल उपाय शुचित नहीं ।

गुरूकुल परिसर , यज्ञभुमि पर , सैन्य पराक्रम उचित नहीं ।"


करबद्ध विनत दशरथ बोले , " जैसा भी कहें उपयुक्त करुँ ।

जिसे कहें श्री चरणों की रक्षा में , उसे नियुक्त करुँ ।।"


विश्वामित्र पुलकित हो बोले " अस्तु भूप ! अब जानें दें ।

राजकुँवर द्वय राम - लक्ष्मण , सँग हमारे आने दें ।।"


सजल नयन बोले तब दशरथ , " क्षमा करें हे ऋषि- रावी ।

कोमलांग मेरे किशोर दो , दैत्य भयंकर मायावी ।।"


" शिरोधार्य कर आज्ञा कैसे , सिंह सम्मुख मृगछान धरुँ ।

प्राण उत्सर्ग कहें , कर दूँ , कैसे सुत दोनों दान करूँ ।।"


दीन वचन सुनि हँसि मुनि बोले - " कातरता शोभाय नहीं ।

चक्रवर्ती अखिलाधिपति , रघुवंशी हो असहाय नहीं ।"


" एक अकेले रामचंद्र , त्रिलोक विजित कर सकते हैं ।

एक तीर से हिं रामानुज, कुल दैत्य प्राण हर सकते हैं।"


" भुज प्रलंब , गिरी वक्ष , सबल, आयुध स्व अंग निर्भीक हैं।

कोमलांग नहीं तनय तुम्हारे , पराक्रम पुण्य-प्रतीक हैं ।"


" रघुकुल रीति नीति महामन् , तनिक राखिए ध्यान में।

खड्ग न वह शोभा पाती है , पड़ी रहे जो म्यान में ।"


" हे राजन् ! है वही क्षत्रिय , निज जन मन भय त्राण करे।

शस्त्र सुयशी जो "समर" भुमि में , शत्रु का लहु पान करे।"


" रघुकूल की भावी सत्ता को , कीर्ति ध्वजा लहराने दो।

प्रखर प्रतापी पौरुष से , परिचित मही को हो जाने दो ।"


" हे रघुकुलभानू ! हे दशरथ ! अब हृदय वृत्त पाषाण करो।

राष्ट्र धर्म के परित्राण हित , राम-लक्ष्मण दान करो ।।"


स्थिर प्रज्ञ हो दशरथ बोले - " आज्ञा शिरोधारण करता हूँ।

 ऋषि चरणों में , धर्म काज हित , दोनों सुत अर्पण करता हूँ ।।"


४.

#प्रेम_में


लिखने बैठा प्रेम कविता

नाम तेरा लिख आया मैं

देख‌ते दर्पण अनायास फिर

खुद से ही शरमाया मैं ॥


दुनिया लगती अलबेली सी

हर पल लगता सपना सा

फागुन का ये असर है या कि

बिन धतूर बौराया मैं ॥


प्रेम में पड़कर मन की मेरे

ऐसी हालत हो गई है

जब कोई तेरा नाम पुकारे 

मैं कहता हूं "आया मैं "॥


कितनी सारी बातें थीं जो

कहनी थी उससे लेकिन

जब वो आई पास मेरे

कुछ भी ना कह पाया मैं॥


रह जाए ना मन की मन में

सोंच सोंच घबराता हूं

और कह दूं तो रूठ न जाए

कितना हूं भरमाया मैं॥


उलझा उलझा सा है लेकिन

फिर भी अच्छा लगता है

उसका मुखड़ा चांद सलोना

और चकोर ललचाया मैं॥


५.


# अहिल्या क्युँ पाषाण हुई ???


गुरू विश्वामित्र के साथ जनकपुर की ओर जाते हुए एक निर्जन आश्रम देख श्रीराम ने जिज्ञासा प्रगट की तो गुरू ने अहिल्या की कथा सुनाई और तदुपरांत प्रभू ने अपने चरणरज से अहिल्या का उद्धार किया ।

सहस्त्र वर्षों के जड़त्व यातना से त्राण पाकर अहिल्या प्रभु से क्या कहती है -


पाकर पावन पदरज प्रभु के

शैल अहिल्या नार हुई

युग युग की जड़ता से मुक्त

सम्प्राण पुन: साकार हुई


कञ्चनाभ किञ्जल कृशकायी

सुँदर मुख सुखकार अहे

अनुभूत  कर  उर  स्पन्दन 

अविरल अश्रुधार बहे


स्मृतियों के बंध खुले ; औ'

स्वयम् से एकाकार हुई

नयन निरखि निज सम्मुख श्रीहरि

द्रवित नमित ऋषिनार हुई


कर अभिनंदन , रघुनंदन का

भाव सिक्त हो मदिरांगी

करुण कण्ठ से , कम्पित स्वर में

बोली गौतम वामांगी


श्रांत हृदय में भाव सिंधु धर

हरि सम्मुख अवधान हुई

कहो - "कौशिल्यापुत्र ! अहिल्या

किस कारण पाषाण हुई ???"


"परपुरुषगामिनी हुई कलंकिनी

खण्डित मेरा सतीत्व हुआ

तीन लोक में , युग युगान्त

कलुषित निन्दित व्सक्तित्व हुआ"


"बस एक प्रहर में , पुण्य धर्म का

सारा सञ्चय रीत गया

वह एक प्रहर जो , निश्चित विधि से

प्रहर पुर्व हिं बीत गया"


"इन्द्र चन्द्र की कपट कुमाया

मोहित आश्रमस्थली हुई

देवराज की असुर वृत्ति से

एक निश्छला छली गई"


"शीतल सुरभित मधुर यामिनी

चन्द्र ने कामागार किया

रुप धरे गौतम का ; इन्द्र ने

भावुक प्रेमोद्गार किया"


"सुन प्राणप्रिय की प्रणय याचना

मैंने रति श्रृंगार किया

निज पति जान हिं , देवभूप को

मैंने अंगीकार किया"


"परख न पाई पातक पशु को

यह मेरा अपराध रहा

किन्तु व्योम साक्षी है , पाप में

तनिक न मेरा साध रहा"


"इक व्यभिचारी के कुताप से

नार अबोधिनी म्लान हुई

कहो कौशिल्यापुत्र ! अहिल्या

किस कारण पाषाण हुई ???"


"जिसने किया छल , दुष्ट सबल खल

देवराज कहलाता है

स्वर्गिक सुख ऐश्वर्य भोगता

किञ्चित नहीं लजाता है"


"उसका अनुचर , रजनीगगनचर

पाप का था अवलंब बना

किन्तु कान्ति किरीट कंत वह

सुन्दरता का बिम्ब बना"


"दोनो हि पातक अपराधी

किन्तु उनको दण्ड नही

कैसे धीर धरुँ , हे राघव !

न्याय है ये , पाखण्ड नही"


"सबल पातकी सुयशी सुफल और

अबला हत अवसान हुई

कहो कौशिल्यापुत्र ! अहिल्या

किस कारण पाषाण हुई ???"


"कहो कौशिल्यापुत्र ! अहिल्या

किस कारण पाषाण हुई ???"


समर नाथ मिश्र


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...