काव्यरंगोली आज का सम्मानित कलमकार डॉ.सुषमा सिंह आगरा

 नाम-डॉ.सुषमा सिंह

उम्र-67 वर्ष,जन्मतिथि-24दिसमम्बर1952

पता-8/153,I/1,न्यू लॉयर्स कॉलोनी,आगरा-282005

व्यवसाय-अध्यापन रहा,प्राचार्य,आर.बी.एस.कॉलेज से अवकाशप्राप्त।17-9-1975से30-6-2014तक स्नातक-स्नात्कोत्तर कक्षाओं में हिन्दी भाषा और साहित्य का अध्यापन,34शोध छात्रों को निर्देशन में पीएच.डी की उपाधि प्राप्त।12से अधिक वि.वि.में और उ.प्र.,म.प्र.,उत्तराखण्ड,झारखण्ड,छत्तीसगढ़ एवं यू.जी.सी में प्राश्निक एवं परीक्षक।


मोबाइल-9358195345

ई-मेल-singhsushma1952@gmail.com

प्रकाशित कृतियां-पहली किरन(काव्य संग्रह)दर्द के साये में(कहानी संग्रह)1990स्वातंत्रोत्तर हिन्दी उपन्यासों में युगबोध का अनुशीलन(शोध प्रबन्ध)1992,एक तुम्हारे साथ होने से(काव्य संग्रह)2011,कुछ तो लोग कहेंगे(कहानी संग्रह)2014,विदुषी विद्योत्तमा(हायकु खण्डकाव्य)2016,मानस के पात्र(निबंध संग्रह)2016,चंदामामा(शिशुगीत संग्रह)2018,बूंद-बूंद से घट भरे(हायकु संग्रह)2019

प्राप्त सम्मान-गांधी जन्म शताब्दी वर्ष में इण्डियन कोअॉपरेशन द्वारा 16भारतीय और 8  विदेशी भाषाओं की अन्तर्राष्ट्रीय निबंध प्रतियोगिता में प्रथम स्थान और उप राष्ट्रपति वी.वी.गिरि से पुरस्कार प्राप्त।विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ,गांधीनगर,ईशीपुर,बिहार द्वारा’विद्यासागर’और ‘भारतगौरव’ की उपाधियां प्राप्त।विश्वंभरा सांस्कृतिक पीठ,शूकरक्षेत्र,सोरोंजी द्वारा’मानस मनीषी’उपाधि,पूर्वोत्तर हिन्दी अकादमी,शिलांग द्वारा’डॉ.महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान प्राप्त,उत्तर प्रदेश लेखिका समिति,आगरा-वनिता विकास ,आगरा-विचार वीथी,नागपुर-श्रीगौरीशंकर ग्राम सेवा मण्डल,बन्बई-हिन्दी प्रचार परिषद,पीलीभीत-महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा,पुणे-भारतीय साहित्यकार समिति,आगरा-श्रीकृष्ण मण्डल साहित्यशील संस्था ,दिल्ली,गीता जयन्ती महोत्सव समिति,नागपुर-ग्वालियर साहित्य एवं कला परिषद्-साहित्य सरोवर,वल्लारी(कर्नाटक)-राष्ट्रभाषा स्वाभिमान न्यास,गाजियाबाद-गुगनराम एजूकेशनल-सोशल वैलफेयर सोसायटी,भिवानी-अखिल भारतीयसाहित्य संगम,उदयपुर-हिन्दी साहित्य सभा,आगरा आदि द्वारा कलम कलाधर,साहित्य गौरव,हिन्दी मनस्वी,राष्ट्रभाषा रतन,आदि उपाधियां प्रदत्त।श्री मौनतीर्थ पीठ ,उज्जैन द्वारा’विदुषी विद्योत्तमा स्त्री शक्ति सम्मान प्राप्त ।


जिन्दगी-२.खत-३.नारी शक्ति ४.एक गीत५.रावण और राम

     सांप के कैंचुल सी मैंने चाही छोढ़नी

       ज़िन्दगी जौंक सी चिपक गयी मुझसे।

दीमक लग गयी मेरे मन में

भरभरा कर गिर गयी मेरे मनसूबें की इमारत।

घुन लग गया मेरे सपनों को

धूल-धूल हो गयीं मेरी रातें ।

ग्रहण लग गया मेरे इरादों को

कागज़ की नाव साबित हुईं मेरी सारी कोशिशें।

मेरी भूख को मार गया लकवा

और मेरी प्यास हो गयी लूली लंगड़ी।

जीवन के आसमान पर छा गयी धुंध

और आ गयीं आंधियां मुसीबतों की ।

तब अंगड़ायी ली मेरी अना ने,मेरे ज़मीर ने

और ज़िन्दगी की पतंग की डोर थामी मैंने हाथों में

हौसलों के पंख लेकर मैंने उड़ान भरी 

अरमानों के आसमान में।

इच्छाओं के बीज डाले कोशिशों की धरती पर।

सफलता की फसल लहलहाने लगी

यशकी महक उड़ कर दूर दूर जाने लगी।

             डॉ़ सुषमा सिंह.आगरा





२.खत

कह रहे हो तुम

कि तुमको खत लिखूँ

खत लिखूँ ,तुमको लिखूँ

और मैं लिखूँ ?

क्या लिखूँ,कैसे लिखूँ?'

पास बैठी मैं तुम्हारे

लिख रही मनुहार का खत

लिख रही स्वीकार का खत

लिख रही इसरार का खत

लिख रही इककार का खत ।

बात कुछ रखकर तो देखो

मान लूँगी।

एक बस आवाज तो दो

आ मिलूंगी।

जब कभी अपलक निहारा है तुम्हें

एक खत पलकों ने भी मेरे लिखा है

और जब मेरे अधर हैं फड़फड़ाते

किन्तु उनसे फूटता है स्वर न कोई

एक खत तब वे भी तुमको लिख रहे हैं

और जब बोझिल पलक मेरी न उठती

एक खत वह भी तुम्हें लिख भेज देती ।

पुलक मेरे बदन की 

और आर्द्रता मेरे नयन की

लिख रही हैं खत तुम्हें, 

तुम बाँच तो लो। 

पास बैठूँ जब तुम्हारे

कुछ पिघलता है कहीं पर

रिस न जाए,चू न जाए

और कोई देख न ले

बाँच न ले खत ये मेरा और कोई

इसलिए संयम का मैं लेकर लिफाफा 

गोंद लेकर औपचारिकता का प्रियवर 

भींच लेती हूँ इसे निज मुट्ठियों में 

थाम लेता है मेरे दिल का कबूतर 

और तेरे दिलके आंगनमें 

लिए जा बैठता है ।

ले इसे ,ये खत है मेरा ।

बाँच ले,ये खत है मेरा ।।

डॉ.सुषमा सिंह




वस्तुतः दूसरी कविता लिखी,भेजती हूँ-

एक सवाल 

मर्यादा पुरुषोत्तम राम से है 

मेरा एक सवाल !

हादसे का शिकार हुई थी अहल्या 

इन्द्र की दुर्भावना से 

चंद्रमा के षड्यंत्र से 

प्रतिकार किया था उसने 

खंडित नहीं होने दिया था सतीत्व 

पहचानती थी पति के स्पर्श को

 सिंहनी सी दहाड़ी थी छद्मवेशी इन्द्र पर

 पददलित कर पलायन के लिए 

कर दिया था विवश

किन्तु उसके शौर्य पर,शक्ति पर

नहीं कर सके विश्वास गौतम 

कर दिया पतिता मान उसका परित्याग ।

तन अपवित्र हो भी जाए 

तो मन की पवित्रता का 

रखा जाना चाहिए मान ।

दंडित करना था इंद्र को 

न कि अहल्या को ।

मिलकर अहल्या से 

यही सब सोचा -समझा था न राम !

तभी तो बुलाकर गौतम को 

अहल्या से दिलायी थी क्षमा ।

तुमने भेजा था उन्हें पतिगृह !

सीता का भी बस 

स्पर्श ही किया था रावण ने

रखा था अस्पृश्य ही अशोक वाटिका में 

उसका मनोबल क्षीण करती रही थी सीता 

आ मिला था घर का भेदी विभीषण 

तभी कर सके थे  तुम रावण का संहार ।

कर के एक आम -सभा 

सीता की पवित्रका का  क्यों न दिया प्रमाण ?

क्यों किया गर्भवती सीता को निष्कासित ?

पराए घर रही सीता को स्वीकारने का अपवाद 

कलंकित कर रहा था न तुम्हें ?

तुम पतित -पावन कहलाते हो न राम 

सीता की पावनता क्यों सिद्ध न कर सके?

आख़िर क्यों ?






मधुऋतु और तुम


- [ ] तुम्हारा  जीवन में  आना ।

- [ ] कि जैसे मधु ऋतु का छाना।।

- [ ] उदासी के झरे   पत्ते।

- [ ] ख़ुशी की कोपलें आयीं।।

- [ ] उमंगों का फिर -फिर उठना ।

- [ ] लता का जैसे हरियाना ।।

- [ ] तुम्हारा जीवन में आना ।

- [ ] कि जैसे मधुऋतु का छाना।।

- [ ] अरहर अलसी सरसों मटरा 

- [ ] जैसे उठते हैं भाव नये। 

- [ ] भावना बने मन का गहना ।

- [ ] नदिया जैसा मन का बहना ।।

- [ ] तुम्हारा जीवन में आना ।

- [ ] कि जैसे मधुऋतु का छाना ।।

- [ ] लज्जा से सिमटना कभी -कभी 

- [ ] हो जाना मुखर भी अनजाने ।

- [ ] कान्हा की वंशी सा बजना

- [ ] कोकिल की तरह गाते रहना ।।

- [ ] तुम्हारा जीवन में आना ।

- [ ] कि जैसे मधुऋतु का छाना ।।

- [ ] आमों पर बौर सजे जैसे ।

- [ ] मेरा मन भी महका ऐसे ।।

- [ ] मधुऋतु में बगिया का सजना ।

- [ ] ऐसी मैं सजी तुमसे  सजना ।।

- [ ] तुम्हारा जीवन में  आना ।

- [ ]  कि जैसे मधुऋतु का छाना।।

- [ ] सार्थक लगता अपना होना ।

- [ ] परिपूर्ण हुआ मन का कोना ।।

- [ ] फूलों का महक लुटाना ।

- [ ] खुशियों का रंग ज़माना ।।

- [ ] तुम्हारा जीवन में आना 

- [ ] कि जैसे मधुऋतु का छाना ।।

- [ ] जो बातें सिखायी गयी थीं

मझे जन्म से 

उन पर लगाया है मैंने प्रश्नचिह्न।

जो बातें घोली गयी थीं 

मेरे संस्कारों में

उन्हें निथार लिया है मैंने ।

जिन रंगों में रंगा गया था मुझे

धो दिया है उन्हें मैंने ।

जिन हवाओं में उढ़ाया गया था मुझे

पकड़ लिया है उन्हें मैंने ।

जिन आसमानों से रोका गया था मुझे 

छू लिया है उन्हें मैंने ।

जहाँ वर्जित था पदचिह्न बनाना मेरे लिए

वहाँ गाढ़े हैं मील के पत्थर मैंने ।

नहीं चखने थे जो स्वाद मुझे 

बढ़ा दिया है उनका जायका मैंने ।

ढका गया था मुझे जिन आवरणों से 

उनका बना दिया है परचम मैंने ।

मैं नहीं हूँ वस्तु कोई

व्यक्ति हूँ मैं ।

तस्वीर नहीं हूँ

हिस्सा नहीं हूँ पारिवारिक चित्र का

व्यक्तित्व हूँ एक संपूर्ण ।

मैं भी हूँ हाड़-माँस का एक पुतला

तुम्हारी तरह

जिसके पास है एक दिमाग

और एक दिल भी ।

जान गयी हूँ मैं बहुत कुछ

सीख गयी हूँ मैं बहुत कुछ

रंगों की असलियत

हवाओं का रुख 

आसमानों की सीमा 

धरती का विस्तार

वर्जनाओं का अर्थ 

और उनकी उपयोगिता 

आवरणों का उद्देश्य।

कभी जो सही था

यह जरूरी नहीं 

वह सही हो अब भी ।

बदल गयी हूँ मैं तो 

पर बदलना तो तुम्हें भी है 

स्वयं को

अपनी सोच को ।

मेरे लिए ही नहीं

अपने लिए भी ।

डॉ.सुषमा सिंह


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