ग़ज़ल--
वक़्त के साज़ पर यूँ छिड़ी है ग़ज़ल
अच्छे अच्छों के चेहरे गये हैं बदल
किसने ग़ज़लों में यह आइना रख दिया
कितने ईमान वाले पड़े हैं उछल
उनकी गलियों से जब भी गुज़रता हूँ मैं
वो भी आते हैं फौरन ही घर से निकल
गुफ्तगू उनसे होती है जब प्यार से
बदनसीबी ने डाली हमेशा ख़लल
उसकी आँखों से पीना यूँ छोड़ दी
उसकी नज़रों में दिखने लगे मुझको छल
उनके क़दमों में ख़ुद मंज़िलें आ गयीं
जिनको हासिल है माँ की दुआओं से बल
बस इसी ग़म से अपना बुरा हाल है
उनकी बदली हुई है नज़र आजकल
ज़ख़्म हैं आज भी उनके बख़्शे हुए
जैसे झीलों में खिलते हों ताज़ा कँवल
ग़म हज़ारों ही देने लगे दस्तकें
अब तो *साग़र* तू अपना रवैया बदल
🖋️विनय साग़र जायसवाल बरेली
10/4/2021
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