सुनीता संतोषी
शिक्षा - स्नातकोत्तर अर्थशास्त्र
रुचि- हिन्द साहित्य में लेखन (लघु कथा ,कविता , लेख आदि)
बैडमिंटन बास्केटबॉल
समाज सेवा
अध्यापन - अध्यापन (अनुभव पंद्रह वर्ष )
प्रकाशित रचनाएं- मनभावन सावन, हिंदी विशेषांक, बिटियादिवस ,
दिवाली विशेषांक ,जिंदगी, निर्भया,भजन विशेषांक, जन -गण - मन आदि पुस्तकों में रचनाएं प्रकाशित एवं काव्य रंगोली सांझा संकलन "माँ माँ माँ "मैं रचना प्रकाशित
अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी परिषद की मीडिया प्रभारी
महिला दिवस पर मध्यप्रदेश महिला रत्न सम्मान प्राप्त ।
मंच को सादर नमन
होली
कैसी आई आफत की टोली।
इस बार नहीं मना पाये होली ।
नहीं आई इस बार मस्तानों की टोली।
नहीं दिखी बच्चों की रंग बिरंगी पिचकारी।
नहीं ढोल ढमाकों की कोई आवाज आई।
नहीं सुनाई दी होली के हुरियारों की तान सुरीली।
नहीं उड़े फिज़ाओं में रंग सतरंगी।
नहीं आई रसोई से पकवानों की महक लज़ीज़ी।
हाँ, इस बार नहीं मना पाए होली।
हाथ उठे गुलाल लेकर।
मन मचला अबीर होकर।
प्रेम रंग में रंग जाऊं,सारे बंधन तोड़ कर।
पर हाथ रुक गए माथा देखकर।
मन मायूस हो गया गुलाल छोड़कर।
हाँ, इस बार नहीं बना पाए होली।
स्वरचित
सुनीता संतोषी
इंदौर
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वीर सपूत
उन शहीदों की शहादत को नमन
जो हँसते हुए लुटा गये जाँ औ तन
जिन्हें नम आंखों से याद करता है वतन।
वे वीर भी सुंदर फूल थे अपने चमन के।
युद्ध का फरमान मिलते ही,
एक पल के लिए ही सही ,
दिल धड़का तो होगा
यह विचार तो आया होगा
घर परिवार का क्या होगा?
देशभक्ति को सर्वोपरि रखते हुए ,
भावनाओं को दिल के
किसी कोने में दफ़न करते हुए।
चल दिया वह वीर सिपाही
सारे रिश्ते नाते छोड़ कर,
नेह बंधनो को तोड़ कर
भुख प्यास और नींद भुलाकर,
घनेरी पहाड़ियों से बर्फीली राहों पर
अपना कर्तव्य निभाने के लिए।
कर्तव्य पथ पर चलते हुए
दुश्मन को छकाते हुए,
अनेकों पर भारी पड़तें हुए
वह वीर सघर्ष करते हुए
लगा रहा था जाँ की बाजी।
दुश्मन पड़ गया भारी
सीना चीर गई दुश्मन की गोली
हुआ शहीद वीर।
तिरंगे मे लिपटा निर्जीव तन
पहुंचा अपने घर आगंन
निहार रहे थे पथरीले नयन
शरीर निश्चल शांत और गंभीर।
सुकून था ,देदीप्यमान मुख पर
वतन के प्रति कर्तव्य निभा कर।
चेहरा पढ़ रहे थे दो पनीले नयन
शांत चेहरे पर थी अनगिनत लकीर।
उनके बीच ऐसी भी थी एक लकीर
जो कह रही थी मैं हूं कर्जदार,
उस रिश्ते का जिसे निभा न सका।
जिसके अरमान पुरें न कर सका।
वो रिश्ते निभाने,अरमान पुरे करने,
तेरा कर्ज चुकाने।मै आऊंगा जरूर
बारंबार बारंबार, बारंबार।
जय हिंद जय हिंद
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स्वरचित
सुनीता संतोषी
इंदौर
आंसू
सीप मे है मोती जैसे
अंखियों मे है आंसू ऐसे।
खुशी हो या गम दोनों
मे छलक आये एक जैसे।
यह आंसू बड़ें अनमोल है
वक्त बेवक्त बता जाते मोल है
कभी दर्द बन दिल मे समाये।
कभी गमों की निर्झरा बन बह आये।
विरहाग्नि में टपके तो ,
लगे शीतल बूंद जैसे ।
स्नेह मिलन में गिरे तो,
लगे रिश्तों की मिठास जैसे।
प्रेम मिलन में गिरे तो,
लगे कुछ कुछ नमकीन से।
जहां इन्सानियत शर्मसार हो
वहां गिरे तो ,
लगे कड़वाहट भरे कसैले से।
हर हालात में है,
स्वाद जु़दा- जुदा।
है अपनी कहानी
खुद बयां करने की अदा ।
मिलता ही नहीं,
कोई हिसाब इनका।
अंखियों की कोर
ठिकाना है जिनका।
स्वरचित
सुनीता संतोषी
इंदौर
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निर्भया
युगो युगो से देती आई परीक्षा नारी।
दुराचारी पुरुष, पर अपराधी नारी।
सीता जी का अपराधी रावण
छल से कर गया माता का हरण।
दुर्योधन की अभद्रता पर ,
बड़ों के मौन के कारण।
दुराचारी दुशासन ने किया,
द्रोपदी का चीर हरण।
किन्हीं भी परिस्थितियों में हो,
बेबस, लाचार ,शिकार है नारी।
दुनिया को हिला देने वाली,
काली स्याह रात का सत्य है।
निर्भया .....
किशोर वय एवं मासूमियत पर,
विश्वास का परिणाम है।
निर्भया.....
समान अधिकार के पक्षधर देश में,
हैवानियत का शिकार है।
निर्भया......
अपने सपने अपनी अस्मिता को
तार तार होते हुए देखने का नाम है।
निर्भया....
पीड़िता होते हुए भी कतिपय ,
लोगों की नाराजगी का उपालंभ है।
निर्भया...
जिस बर्बरता के किस्से सुनकर
हर नारी की रूह़ कांप उठे वह है।
निर्भया..
न्याय तो मिला ,पर मन मे
एक फांस सी रह गयी,
जिसनें दरिंदगी की हदे पार कर दी।
वहीं घूम रहा है कही बेखौफ।
पांचसाल, तीनसाल ,तीन महीने
की, नन्ही बच्चियां क्यों?
हो रही दरिंदगी का शिकार।
जिनसे इंसानियत हो रही शर्मसार।
क्यों ?नहीं इन् नर पिशाचों को,
तत्काल दिया जाता मार।
हे ईश्वर कोई बना दे एसी डगर,
जिस पर से गुजरे हर बेटी निडर।
बेपरवाह बेफ़िकर।
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स्वरचित
सुनीता संतोषी
इंदौर
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जिंदगी
अल्हड़ बचपना अपने आप में मस्त।
दीन दुनिया से बेखबर।
आज का पता न कल की फ़िकर।
यही तो है जिंदगी.............
कुछ पा लेने की चाहत में खोता बचपन।
स्वयं को स्वयं में खोजता यौवन।
अपनी ही उलझन में ढूंढता सुलझन।
यही तो है जिंदगी...............
कुछ कर गुजरने के ख्वाब लिए नयन।
छूटता अपना घर आंगन।
कामयाबी के पर लगा छुता आसमान।
यही तो है जिंदगी...............
जो चाहा वह पा लिया।
जो ना चाहा वह भी पाया।
फिर भी मन रिक्त हो आया।
खुद से खुद को ही ठगा पाया।
यही तो है जिंदगी.............
हर सांस में है जिंदगी।
हर आस में है जिंदगी।
जिसे कोई सुन ना सका,
वह सन्नाटे की आवाज है जिंदगी।
यही तो है जिंदगी..........
सारी उम्र गुजार दी पढ़ते-पढ़ते।
जीना सिखा गई जिंदगी चलते-चलते।
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स्वरचित
सुनीता संतोषी
इंदौर
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