डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चौथा-5
  *चौथा अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5
हाँकहिं डींग देवता सबहीं।
जब जुधि-भूमिहिं बाहर रहहीं।।
    कहहिं बीर सबहीं अपुनै को।
    जब नहिं आस लराई तिन्हको।।
का करिहहिं बनबासी संकर।
बिषनू जे एकांत निरंतर ।।
    अल्पबीर्य इंद्रहिं बस नाहीं।
     ब्रह्म तपस्वी अपि डरि जाहीं।।
तदपि न करिअ उपेछा तिन्हकर।
रहहिं सत्रु जग सत्रुहिं बनकर।।
     हम सभ नाथ सुरच्छा करबै।
     जड़ उखाड़ि रिपुन्ह कै फेकबै।।
इंद्री-दमन सदा हितकारी।
सो रिपु-दलन अहहि सुखकारी।।
    सभ सुर कै जड़ बिष्नू आहीं।
    रहइ सनातन धरमहिं पाहीं।।
धरम सनातन कै जड़ बेदा।
गऊ-तपस्या-द्विजहिं अभेदा।।
     जग्य-दच्छिना औरउ दाना।
      अहहिं सनातन धरम-बिधाना।।
हम सभ करब नास यहि सबकर।
ब्रह्मन-बेद--तपस्या-गउ कर ।।
      ब्रह्मन-गऊ-तपस्या-बेदा।
      श्रद्धा-दया व सत्य अभेदा।।
मन-निग्रह अरु इंद्री-दमना।
जग्य-तितिच्छा बिषनुहिं बपुना।
     असुर-सत्रु अरु सुर कै स्वामी।
      भोजराज सुनु, बिष्नुहिं नामी।।
पर ऊ रहइ गुफा के अंदर।
उहइ अहइ जड़ ब्रह्मा-संकर।।
     तासु मृत्यु कै एक उपाया।
     ऋषि-मुनि कै जब होय सफाया।।
कंसइ दंभी-सत्यानासी।
भ्रष्ट-बुद्धि अरु धरम-बिनासी।।
     कंसहिं सचिव कंस तें बढ़कर।
     देहिं सलाह घृनित सभ मिलकर।।
हिंसा-प्रेमी राच्छस सबहीं।
नृप-आयसु पा मारन चलहीं।।
      संत पुरुष जे रहहिं सुधर्मी।
      मारैं तिनहिं उ सबहिं कुकर्मी।।
रजोगुनी रह प्रकृति असुर कै।
तमोगुनी रह चिंतहिं तिनहिं कै।।
   उचित न अनुचित समुझहिं असुरा।
   तिनहिं के सिर जनु कालहि पसरा।।
बिबिध रूप धरि इत-उत फिरहीं।
इरिषा-जलन संत सँग रखहीं।।
दोहा-करइ अनादर संत जे,कबहुँ न सुख ते पाहिं।
        संपति-आयुहि-धर्म-जसु, खोवहिं जग पछिताहिं।।
                       डॉ0हरि नाथ मिश्र
                         9919446372

*दोहे*
सच्चा कवि तो है वही,जो हो भाव-प्रधान।
औषधि रूपी शब्द से,करता उचित निदान।।

बिना किए बेचैन मन,लिख न लेखनी गीत।
सुख-दुख के हर भाव का,रचे वही संगीत।।

कविता कवि-मन की उपज,कविता-कवि अनमोल।
रहे  लेखनी  अति  सजग,   करे  न  टाल - मटोल।।

गीत  और  संगीत  का, होता  अद्भुत  मेल।
दोनों को औषधि समझ, मेंटे  संकट - खेल।।

कोमल और कठोर दो, होते  मन  के  भाव।
कोमल को जन पूजते, रखते  अपर  दुराव।।

भाव-नाव  के  भेद  को, समझो  मेरे  यार।
एक  करे  दुख  दूर  तो, दूजी  सरिता पार।।

खले सदा जग रिक्तता,धन या जन जो होय।
मिले अगर जग पूर्णता,भाग्यवान  नर सोय।।
               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                   9919446372

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