डॉ0 हरि नाथ मिश्र

छठवाँ-7
  *छठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-7
प्रभु-पद-पंकज जे मन लागा।
जाके हृदय नाथ-अनुरागा।।
    पाई उहहि अवसि सतधामा।
    निसि-दिन भजन करत प्रभु-नामा।।
ब्रह्मा-संकर-बंदित चरना।
करहिं सुरच्छा जे वहिं सरना।।
   प्रभु निज चरनन्ह दाबि पूतना।
   पिए दूध तिसु जाइ न बरना।।
दियो परम गति ताहि अनूपा।
मिली सुगति जस मातुहिं रूपा।।
    बड़ भागी ऊ गउवहिं माता।
    जाकर स्तन पियो बिधाता।।
अमरपुरी-सुख ते सभ पहिहैं।
किसुनहिं-कृपा-अनुग्रह लहिहैं।।
     प्रभू-अनुग्रह होतै मिलई।
     मुक्ति 'केवल्य' जगत जे कहई।।
जे जे गोपिहिं औरउ गैया।
जाकर दुधय पिए कन्हैया।।
    जीवन-मरन-मुक्ति ते पाई।
    भव-सागर तुरतै तरि जाई।।
तिनहिं न होई भौतिक-तापा।
माया-मोह न आपा-धापा।।
    सुनहु परिच्छित मोरी बचना।
    मुनि सुकदेवहिं कह मधु रसना।।
भए सकल ब्रजबासी चकितै।
बालक कृष्न सुरच्छित लखतै।।
     निकसत धुवाँ सुगंधित तन कहँ।
     अचरज भवा तहाँ सभ जन कहँ।।
बाबा नंद छूइ सिर कृष्ना।
पुनि-पुनि सूँघि बिगत जनु तृष्ना।।
     होंहिं अनंदित अपरम्पारा।
     धारे किसुनहिं निज अकवारा।।
दोहा-एक बेरि ब्रह्मा हरे,सकलइ ग्वाल व बच्छ।
        बछवा बनि तब कृष्न तहँ,दूध पिए गउ स्वच्छ।।
        सकल गऊ तब तें भईं,किसुनहिं जनु निज मातु।
       धन्य-धन्य लीला किसुन, बरनत जी न अघातु।।
                    डॉ0हरि नाथ मिश्र
                       9919446372

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