डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-4
     *अठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-4
कीचड़ भरी गलिन गोकुल कै।
खेलहिं जहाँ सुतन्ह नंद कै।।
   चलत बकैयाँ पग-कटि घुघरू।
    जनु सिव थिरकहिं बाजत डमरू।।
कबहुँ-कबहुँ ते पाछे चलहीं।
मग महँ जे अनजाना रहहीं।।
     पर ते सिसुहिं जानि अनजाना।
     चलत बकैयाँ मातुहिं आना।।
जावहिं राम रोहिनी पासा।
पास जसोदा कृष्न उलासा।।
    स्तन-पान करावहिं मैया।
    निरखत अद्भुत राम-कन्हैया।।
कीचड़-लसित गात दुइ भ्राता।
बहु-बहु लखि नहिं चित्त अघाता।।
     लखि भोला मुख राम-कन्हैया।
     सिंधु अनंदहिं डूबहिं मैया ।।
स्तन-पान करत मुस्काए।
लखि दुइ दंतुलि चित हरषाए।।
     कछुक काल बीते दुइ भाई।
      बइठल बछरू पूँछहिं धाई।।
लीला निरखि-निरखि सभ हरखहिं।
देखि जिनहिं गोपी सभ तरसहिं।।
     भागै बछरू डरि चहुँ ओरा।
      लेइ घसीटत दुइनउँ छोरा।।
छाँड़ि सभें गोपी निज कारज।
होंहि अनंदित लखि अस अचरज।।
    हँसि-हँसि, लोट-पोट भुइँ परहीं।
     जनु ते सुखन्ह अमरपुर पवहीं।।
चंचल-नटखट दुइनउँ भाई।
कबहुँ त जाइ हिरन अरु गाई।
     जावहिं कबहूँ पसुहिं बिषाना।
       जरत अगिनि कूदहिं  अनजाना।।
कूप-गड्ढ-जल गिरि-गिरि बचहीं।
कबहुँ त कंट-बनज महँ फँसहीं।।
     खेलहिं कबहुँ लेइ बलदाऊ।
     किसुनहिं मोर संग हरखाऊ।।
बहुतै बरजैं मिलि महतारी।
मानैं राम न किसुन मुरारी।।
     धारि चित्त तजि गृह सभ काजा।
      कहत बुलावैं आ जा,आ जा।।.
दोहा-कछुक काल के बाद तब,चलन लगे निज पाँव।
        दुइनउँ बंधु लुदकि-लुदकि, ब्रज महँ ठाँवहिं-ठाँव।।
                      डॉ0हरि नाथ मिश्र
                        9919446372

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