आठवाँ-4
*अठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-4
कीचड़ भरी गलिन गोकुल कै।
खेलहिं जहाँ सुतन्ह नंद कै।।
चलत बकैयाँ पग-कटि घुघरू।
जनु सिव थिरकहिं बाजत डमरू।।
कबहुँ-कबहुँ ते पाछे चलहीं।
मग महँ जे अनजाना रहहीं।।
पर ते सिसुहिं जानि अनजाना।
चलत बकैयाँ मातुहिं आना।।
जावहिं राम रोहिनी पासा।
पास जसोदा कृष्न उलासा।।
स्तन-पान करावहिं मैया।
निरखत अद्भुत राम-कन्हैया।।
कीचड़-लसित गात दुइ भ्राता।
बहु-बहु लखि नहिं चित्त अघाता।।
लखि भोला मुख राम-कन्हैया।
सिंधु अनंदहिं डूबहिं मैया ।।
स्तन-पान करत मुस्काए।
लखि दुइ दंतुलि चित हरषाए।।
कछुक काल बीते दुइ भाई।
बइठल बछरू पूँछहिं धाई।।
लीला निरखि-निरखि सभ हरखहिं।
देखि जिनहिं गोपी सभ तरसहिं।।
भागै बछरू डरि चहुँ ओरा।
लेइ घसीटत दुइनउँ छोरा।।
छाँड़ि सभें गोपी निज कारज।
होंहि अनंदित लखि अस अचरज।।
हँसि-हँसि, लोट-पोट भुइँ परहीं।
जनु ते सुखन्ह अमरपुर पवहीं।।
चंचल-नटखट दुइनउँ भाई।
कबहुँ त जाइ हिरन अरु गाई।
जावहिं कबहूँ पसुहिं बिषाना।
जरत अगिनि कूदहिं अनजाना।।
कूप-गड्ढ-जल गिरि-गिरि बचहीं।
कबहुँ त कंट-बनज महँ फँसहीं।।
खेलहिं कबहुँ लेइ बलदाऊ।
किसुनहिं मोर संग हरखाऊ।।
बहुतै बरजैं मिलि महतारी।
मानैं राम न किसुन मुरारी।।
धारि चित्त तजि गृह सभ काजा।
कहत बुलावैं आ जा,आ जा।।.
दोहा-कछुक काल के बाद तब,चलन लगे निज पाँव।
दुइनउँ बंधु लुदकि-लुदकि, ब्रज महँ ठाँवहिं-ठाँव।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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