*आठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-6
कबहुँ त छेद करहि मटका महँ।
छाछ पियहि भुइँ परतइ जहँ-तहँ।।
लला तोर बड़ अद्भुत जसुमत।
गृह मा कवन रहत कहँ जानत।।
केतनउ रहइ जगत अँधियारा।
लखतै किसुन होय उजियारा।।
तापर भूषन सजा कन्हाई।
मणि-प्रकास सभ परे लखाई।।
तुरतै पावै मटका-मटकी।
माखन खाइ क भागै छटकी।।
लखतै हम सभ रत गृह-काजा।
तुरतै बिनु कछु किए अकाजा।।
लइ सभ सखा गृहहिं मा आई।
खाइ क माखन चलै पराई ।।
दोहा-पकरि जाय चोरी करत,तुरतै बनै अबोध।
भोला-भाला लखि परइ, धनि रे साधु सुबोध।।
सुनतै जसुमति हँसि परीं,लीला-चरित-बखान।
डाँटि न पावैं केहु बिधी,कान्हा गुन कै खान।।
एक बेरि निज गृहहिं मा,माखन लिए चुराय।
मनि-खंभहिं निज बिंब लखि,कहे लेउ तुम्ह खाय।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
*कुण्डलिया*
बोलें कभी न कटु वचन,इससे बढ़े विवाद,
मधुर बोल है शहद सम,करे दूर अवसाद।
करे दूर अवसाद,शांति तन-मन को मिलती,
उपजे शुद्ध विचार,और भव-बाधा टलती।
कहें मिसिर हरिनाथ,बोल में मधु रस घोलें,
यही ताप-उपचार, वचन रुचिकर ही बोलें।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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