आठवाँ-3
*आठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3
पहिले कबहुँ रहा ई जनमा।
यही बरन बसुदेवहिं गृह मा।।
यहिंतें बासुदेव कहलाई।
तोर लला ई किसुन कन्हाई।।
बिबिध रूप अरु बिबिधइ नामा।
रहहि तोर सुत जग बलधामा।।
गऊ-गोप अरु तव हितकारी।
अहहि तोर सुत बड़ उपकारी।।
हे ब्रजराज,सुनहु इकबारा।
कोउ नृप रहा न अवनि-अधारा।।
लूट-पाट जग रह उतपाता।
धरम-करम रह सुजन-निपाता।।
रही कराहत महि अघभारा।
जनम लेइ तव सुतय उबारा।।
जे जन करहिं प्रेम तव सुतहीं।
बड़ भागी ते नरहिं कहहहीं।।
बिष्नु-सरन जस अजितहिं देवा।
अजित सरन जे किसुनहिं लेवा।।
तव सुत नंद,नरायन-रूपा।
सुंदर-समृद्ध गुनहिं अनूपा।।
रच्छा करहु तुमहिं यहि सुत कै।
सावधान अरु ततपर रहि कै।।
नंदहिं कह अस गरगाचारा।
निज आश्रम पहँ तुरत पधारा।।
पाइ क सुतन्ह कृष्न-बलदाऊ।
नंद-हृदय-मन गवा अघाऊ।।
सोरठा-कहे मुनी सुकदेव, सुनहु परिच्छित थीर मन।
कृष्न औरु बलदेव,चलत बकैयाँ खेलहीं।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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