डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दसवाँ-3
  *दसवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3
जे नहिं कंटक-पीरा जानै।
ऊ नहिं पीरा अपरै मानै।।
    नहीं हेकड़ी,नहीं घमंडा।
    रहै दरिद्री खंडहिं-खंडा।।
नहिं रह मन घमंड मन माहीं।
जे जन जगत बिपन्नय आहीं।।
    रहै कष्ट जग जे कछु उवही।
    ओकर उवहि तपस्या रहही।।
करि कै जतन मिलै तेहिं भोजन।
दूबर रह सरीर जनु रोगन ।।
     इन्द्रिय सिथिल, बिषय नहिं भोगा।
     बनै नहीं हिंसा संजोगा ।।
कबहुँ न मनबढ़ होंय बिपन्ना।
होंहिं घमंडी जन संपन्ना ।।
     साधु पुरुष समदरसी भवहीं।
    जासु बिपन्न समागम पवहीं।।
नहिं तृष्ना,न लालसा कोऊ।
जे जन अति बिपन्न जग होऊ।।
     अंतःकरण सुद्धि तब होवै।
      अवसर जब सतसंग न खोवै।।
जे मन भ्रमर चखहिं मकरंदा।
प्रभु-पद-पंकज लहहिं अनंदा।।
     अस जन चाहहिं नहिं धन-संपत्ति।
    संपति मौन-निमंत्रन बीपति ।।
प्रभु कै भगति मिलै बिपन्नहिं।
सुख अरु चैन कहाँ सम्पन्नहिं।।
      दुइनिउ नलकूबर-मणिग्रीवा।
      बारुनि मदिरा सेवन लेवा।।
भे मदांध इंद्री-आधीना।
लंपट अरु लबार,भय-हीना।।
      करबै हम इन्हकर मद चूरा।
      चेत नहीं तन-बसन न पूरा।।
अहइँ इ दुइनउ तनय कुबेरा।
पर अब पाप इनहिं अस घेरा।।
     जइहैं अब ई बृच्छहि जोनी।
     रोकि न सकै कोउ अनहोनी।।
पर मम साप अनुग्रह-युक्ता।
कृष्न-चरन छुइ होंइहैं मुक्ता।।
दोहा-जाइ बीति जब बरस सत,होय कृष्न-अवतार।
        पाइ अनुग्रह कृष्न कै, इन्हकर बेड़ा पार ।।
                     डॉ0हरि नाथ मिश्र
                      9919446372

कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...