डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-7
  *आठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-7
एक दिवस बलदाऊ भैया।
लइ गोपिन्ह कह जसुमति मैया।।
     माई,खाए किसुन-कन्हाई।
     माटी इत-उत धाई-धाई।।
पकरि क हाथ कृष्न कै मैया।
कह नटखट तू बहुत कन्हैया।।
     काहें किसुन तू खायो माटी।
     अस कहि जसुमति किसुनहिं डाँटी।।
सुनतै कान्हा डरिगे बहुतै।
लगी नाचने पुतरी तुरतै।।
    झूठ कहहिं ई सभें हे मैया।
    गोप-सखा-बलदाऊ भैया।।
अस कहि कृष्न कहे सुनु माई।
नहिं परतीति त मुँहहिं देखाई।।
    अब नहिं बाति औरु कछु बोलउ।
    कहहिं जसोदा मुहँ अब खोलउ।।
तुरत किसुन तब खोले आनन।
लखीं जसोदा महि-गिरि-कानन।।
      सकल चराचर अरु ब्रह्मंडा।
      बायु-अग्नि-रबि-ससी अखंडा।।
जल-समुद्र अरु द्वीप-अकासा।
विद्युत-तारा सकल प्रकासा।।
    सत-रज-तम तीनिउँ मुख माहीं।
    परे जसोदा सभें लखाहीं।।
जीव-काल अरु करम-सुभावा।
साथ बासना जे बपु पावा।।
     बिबिध रूप धारे संसारा।
     स्वयमहुँ देखीं जसुमति सारा।।
दोहा-किसुन-छोट मुख मा लखीं,जसुमति रूप अनूप।
        सकल विश्व जामे रहा,जल-थल-गगन-स्वरूप।।
                 डॉ0 हरि नाथ मिश्र
                   9919446372

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