कुदरत!
कुदरत के सिवा इस धरती पर,
कुछ और नहीं भ्रमजाल है ये।
न जादू कोई, न टोना कोई,
औरों की कोई चाल है ये।
कुदरत ने हमें जंगल बख्शा,
हमने उसे उजाड़ दिया।
उसकी सारी हरियाली को,
हमने मौत का हार दिया।
जंगल की उखड़ती सांसों पे,
फिर हमने सवाल किया है ये।
कुदरत के सिवा इस धरती पर,
कुछ और नहीं, भ्रमजाल है ये।
मोटर-गाड़ी बंगले तेरे,
ये सब सुख के मूल नहीं।
पैरों के तले कुचली कलियाँ,
क्या तेरी कोई भूल नहीं?
जीते जी औरों का जीना,
तूने क्यों मुहाल किया है ये।
कुदरत के सिवा इस धरती पर,
कुछ और नहीं, भ्रमजाल है ये।
करेगा जब मूक प्राणी की रक्षा,
तब जाकर संसार बचेगा।
विकास की अंधी दौड़ से लौट,
तब जाकर भूगोल सजेगा।
मत बलि दे उस बकरे की,
वह तो कोई ढाल नहीं है ये।
कुदरत के सिवा इस धरती पर,
कुछ और नहीं भ्रमजाल है ये।
अंधश्रद्धा का झुनझुना बजाना,
अब दुनिया में छोड़ दे।
ईश्वर तो है तेरे अंदर,
अंदर से उसको जोड़ दे।
हक़ीक़त में हो पूजा जिसकी,
उसको क्यों हलाल किया है ये।
कुदरत के सिवा इस धरती पर,
कुछ और नहीं, भ्रमजाल है ये।
मौत जो बरसी, क्यों बरसी,
समझ तू कर्मों का लेखा।
खुदा जो बन बैठे थे जमीं के,
उनको भी मरते देखा।
मज़लूमों का हक़ छीनकर,
तूने ऐसा हाल किया है ये।
कुदरत के सिवा इस धरती पर,
कुछ और नहीं, भ्रमजाल है ये।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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