कुमार@विशु

माँ का कर्ज चुकाना है।
जिसके  आँचल  के छाँव तले हम बड़े हुए,
जिसकी  मिट्टी  में  खेलकूदकर  खड़े  हुए,
उसके पाँव की मिट्टी को माथे से लगाना है,
अब  हमको भारत माँ का  कर्ज चुकाना है।।

हरियाली धानी कपड़ों को हमने सदा जलाया,
नष्ट किये सारे  वन-उपवन सुनापन अपनाया ,
वृक्ष लगाकर फिर से धरती माँ को सजाना है,
अब  हमको भारत माँ  का  कर्ज  चुकाना  है।।

वो जननी नौ माह हमे निज कोंख में रखती है,
बूँद-बूँद निज रक्त से तन को सिंचित करती है,
पीड़ा  हँसकर  झेल  गयी उसे नहीं रूलाना है,
उस जननी माँ के हित में कुछ फर्ज निभाना है।।

जन्म से लेकर  मृत्यु तलक जिसने है अन्न दिया,
जिसके रजकंण में उठ गिरकर हमने साँस लिया,
झूलसी  केसर  की  क्यारी  को  फिर महकाना है,
अब   हमको  भारत  माँ  का   कर्ज  चुकाना  है।।

उत्तर   में   गिरिराज  हिमालय   पहरा   देता  है,
दक्षिण  में  सागर  निसदिन चरणों को धोता  है ,
भारत  माँ के  श्री  चरणों  में  शीश  झुकाना है,
अब हमसबको  भारत  माँ  का  कर्ज चुकाना है।।

रक्त की नदियाँ बह जाएँ कम शीश नहीं होंगे,
माँ शान अगर गिर जाए तो जीकर क्या करेंगे,
दुश्मन की छाती पर चढ़ ध्वज तेरा फहरान है,
अब  हमसबको भारत माँ का  कर्ज चुकाना है।।

✍️कुमार@विशु
✍️स्वरचित मौलिक रचना

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