नूतन लाल साहू

चिंता

धुंआ उमड़ता है,भीतर ही भीतर
दहके जैसे कोई अवा
लाइलाज ये रोग है
जिससे चतुराई,घट जाता है पूरा
इसका ना तो इलाज है
और ना ही है,कोई दवा
गीली लकड़ी सुलगे जैसे
ऐसे ही काया,जलता है हमेशा
मूंद लें पलके, सपनों में खो जा
जुगत करो जीने का
चिंता के वजह से ही,होती है बीमारी
कैसे समझाऊं,मन को मैं
गलती से कोई,सबक न लिया
यही तो है,नादानी
अंधड़ सी बनकर उड़ती है
अंदर ही अंदर,पागल मस्त हवा
लाइलाज ये रोग है
और ना ही कोई दवा
समय बड़ा अनमोल है
गया समय,फिर नही आयेगा
किसी से नही,शिकवा गिला है,पर
क्या गलत है और क्या सही है
बस इतना ही,समझ ले बंदे
मुझे तो बस इतना ही,चिंता है
ये किसी को,बात खुलकर
कभी बताते ही नही है
चिंता से चतुराई घटय
दुःख से घटय शरीर
सब कुछ,खाक हो जाता है
जैसे लकड़ी में लगता है घून

नूतन लाल साहू

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