अब इन जीवन की पथरीली राहों पर,चलने से मन डरता है।अब मरने को जी करता है।- दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

जो रोने की है बात सुनो 
अब उस पर भी हंसना क्या
हैं आशीष नहीं अभिशाप तुझे
आंसू का प्रवाह तुझसे थमना क्या
अब इन जीवन की पथरीली राहों पर, 
चलने से मन डरता है।
अब मरने को जी करता है।।

ख़ुद्दारी  की  ऐसी  दृष्टि, 
नफरत की हर ओर से वृष्टि।
शोक हमारा हृदयकुंज है, 
तमस भरा दिख रहा पुंज है।
निर्बलता - निर्धनता  का, 
अपराध बोध पल-पल करता है।
अब मरने को जी करता है।।

नाश नगर में घूम रहा हूं, 
ख़ुद को खुद में ढ़ूंढ़ रहा हूं।
छल प्रपंच के अमर बेल में, 
जानें कैसे झूल रहा हूं।
जिंदाशव हू़ं नवजीवन को ढूंढ रहा हूं, 
छलक अश्रु से सब दिखता है।
अब मरने को जी करता है।।

जीवन के पथ पर चलते-चलते, 
यूं सारे उन्माद भरे हैं।
ख़ुद के भूलों के अनुभव पर, 
घोर अंधेरी सी रात भरे हैं।
क्या सपने होंगें साकार कभी, 
तूं रहे जहां वो मृत्यु हो मन करता है।
अब  मरने  को  जी  करता  है।।

  दयानन्द_त्रिपाठी_व्याकुल

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