*शीर्षक:-मैं मजदूर हूँ मजबूर*
मैंने बनाये मंदिर,मस्जिद
मैंने बनाये गिरजाघर
लेकिन मैं नही
बना पाता अपना घर।
बहुत बनाई बहु मंजिला इमारत
संग में बंग्ला और कोठी
फिर भी मेरे पास में
एक झोपड़ी ही होती।
बना दिए मैंने महँगे -महँगे
शॉपिंग मॉल और दुकान
लेकिन मेरा नही हुआ
अब तक पूरा मकान
हाँ मैंने बनाये विधानसभा,
लोकसभा संसद भवन
लेकिन अपने वास
पर न कर सका चमन।
हाँ, मैंने ही बनाये
कार्यालय सरकारी
लेकिन मैं ना बना
सका अच्छी रहनवारी
कुमोद कहे हे मजदूर
तू क्यों हैं इतना मजबूर
तू सबको देता खुशियाँ
तू ही क्यों खुशियों से दूर।
कोमल पूर्बिया "कुमोद"
ओगणा,उदयपुर (राज)
क्षेत्रीय अध्यक्ष,
क्राइम कंट्रोल रिफॉर्म ऑर्गेनाइजेशन, इंडिया
स्वरचित, मौलिक,सर्वाधिकार सुरक्षित रचना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें