ग़ज़ल--
मेरी परवाज़ को आसमां कुछ नहीं
फिर भी दिल में है मेरे गुमां कुछ नहीं
आज़माना है तो खुल के तू आज़मा
मेरी कुव्वत को यह इम्तिहां कुछ नहीं
तुझको अपना बनाने की ज़िद है मुझे
तेरी खातिर ये कौन-ओ-मकां कुछ नहीं
अपनी उल्फ़त से रंगीन कर दे इसे
तेरे बिन ख़ूबसूरत समां कुछ नहीं
तूने भर दी है झोली मेरी प्यार से
और अब चाहिए मेहरबां कुछ नहीं
कैसे क़ातिल पे इल्ज़ाम साबित करूँ
जूर्म का उसने छोड़ा निशां कुछ नहीं
मेरे मुँह में किसी और की है ज़ुबां
बोल सकता मैं अपनी ज़ुबां कुछ नहीं
मेरी बातो पे *साग़र* अमल हो रहा
लफ्ज़ मेरे हुए रायगां कुछ नहीं
🖋️विनय साग़र जायसवाल ,बरेली
गुमां-अहंकार ,गर्व, कयास
कुव्वत-ताकत ,दम
कौन-ओ-मकां-संसार ,जगत
अमल-व्यवहार में लाना ,अपनाना
रायगां-बेकार
17/5/2021
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