लता विनोद नौवाल

सपने हुए चूर-चूर
हमने जिनके घर बनाए
 वह हमारे काम ना आए 
एक  महीने भी वो रखना पाए
छुट गयी नौकरी 
 पैदल चल कर आ गए 
जाने कहां से  इतनी ताकत पा गए रोजी रोटी ना रोजगार
 बंद हो गए कारोबार  
कोरोना ने बढ़ाई मजबूरी 
ना चाहते हुए हो गई दूरी 
सब सपने हुए चूर-चूर 
 कितने हुए मजबूर
 हर तरफ दिखती मायूसी
  जायें तो जायें  कहां 
भविष्य का भी कुछ नहीं पता
हमसे क्या हुई ऐसी खता
 क्यों हुए इतने मजबूर
 सपने सब हो गए चूर-चूर
 लता विनोद नौवाल

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