ग़ज़ल
ज़ुल्फ़ लहराए तो सावन की घटा छाती है
तेरे हँसने से बिजली सी कौंध जाती है
तुमको कुदरत ने बनाया बड़ी फुर्सत से
पलके तेरी जो उठी रोशनी छा जाती है
ज़ुल्फ़।।।।।।
तू जब बोलती है तो लगता जैसे कानो में मीठी मिश्री सी घुली जाती है
ज़ुल्फ़।।।।।
रेशमी हाथों पे सजती चूड़ियां तेरी
छूते ही मेरे वो खनक जाती है
ज़ुल्फ़।।।।।।
तेरे पास आकर ये महसूस होता है मुझे
साँसे मेरी जैसे थमी जाती है
ज़ुल्फ़।।।।।
तू जब निकलती है किसी राह पर
तेरी खुश्बू से जया वो राह महक जाती है
ज़ुल्फ़।।।।।।।
स्वरचित
जया मोहन
प्रयागराज
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