सपनों के आकार बदलता रहता हूं।
अपनों से बेकार उलझता रहता हूँ।
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थाह नहीं जिसकी एक समंदर ऐसा।
प्रेम नदी में जिसकी बहता रहता हूँ।
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सागर मंथन दुख सुख का होता अक्सर।
ज्वार सरीखा सिर्फ उफनता रहता हूँ।
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चाहूं सबका सिर्फ भला दुनिया वालो।
लेकिन क्या क्या सबसे सुनता रहता हूं।
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वो मेरे हैं या मैं उनका हूं साथी।
इस उलझन में रोज उलझता रहता हूँ।
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सुनीता असीम
२६/५/२०२१
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