कुदरत का कहर
कुदरत ने ये कैसा कहर बरपाया है
हर इंसान मौत के ख़ौफ़ से थर्राया है
ज़िन्दगी के पहिये थम से गये
सुख गुम हुआ दुख के टीम से घिर गए
प्रकृति को नाराज़ करने का फल पाया है
कुदरत।।।।।।।
कुदरत ने तो दी थी शस्य शयमला धरा
नदी,वन,पर्वतों की मनोरम छटा
प्राणवायु देने वाले वृक्षो को हमने ही कटवाया है
बिना ऑक्सीजन मर रहे उसी का फल पाया है
कुदरत।।।।।।।
कुदरत ने दिए थे अनुपम उपहार
तू करने लगा उनका व्यापार
तू खुद को नियंता समझ बैठा
इसीलिए ईश्वर तुझसे रूठा
वो एक साथ कई मुसीबतें ले आया है
कुदरत।।।।।।।
अब घर मे बंद हो प्रभु को याद करता है
अपनो से मिलने को तरसता है सुखद भोर होने की राह ताकता है
सब खोकर अब खुद को याद करता है
क्यों बनाने वाले ने अपनी कृतियों को मिटाया है
तू भूल न अपने निर्माता को यही स्मरण कराने को
कुदरत ने कहर बरपाया है
स्वारचित
जया मोहन
प्रयागराज
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