आज के इस दौर में मुश्किल नहीं हैं काम।
आदमी बिकने लगे बिकने लगे हैं नाम।
बोल गूंगो के यहाँ अंधे दिखायें राह।
दौड़ लँगड़ों के यहाँ,लूले बढ़ायें चाह।
दोष नजरों का उन्हें दिन को दिखायें शाम।
द्वंद है इस बात का खुदके सतायें लोग।
कुछ हवाओं साथ थे जिसने बढ़ाये रोग।
आदमी को तौलते हैं कौड़ियों के दाम।।
देखता आकाश धरती में हुआ हैं शोर।
दूर क्यों अपने हुए बेचैन क्यों हैं भोर।
सांस क्यों रोती रहीं कैसे हवा के नाम।।
राजसी अंदाज में चलने लगे हैं बोल।
राज की क्या बात है जो पीटते हैं ढोल।
रंग भी बदले हुए जपने लगे हैं राम।।
पेड़ ये खामोश हैं पत्ते यहाँ हैं मौन।
भूलती सड़कें यहाँ जाने कहाँ हैं कौन।
बात अनशन की करें सड़कें लगायें जाम।।
साख की इस धुंध में बदली हुई हैं छाँव।
याद फिर आने लगे अमराइयों के गाँव।
धूप का सौदा हुआ बिकने लगी हैं शाम।।
दिन न बदला है न बदली है यहाँ पर रात।
पर बदल जाते यहाँ इंसानियत जज्बात।
मौत के इस खेल में कैसे हुये बदनाम।।
*डॉ.रामकुमार चतुर्वेदी*
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें