रामकेश एम यादव

प्रकृति!
अगर सो रहा तनकर पर्वत,
 निश्चित उसको सोने दो।
जड़ी-बूटी का वहीं खजाना,
महफूज़ अगर है, रहने दो।
मत छेड़ो झरनों को कभी,
मंथर गति से बहने दो।
जीवन का उसमें सार छिपा,
पढ़ने वालों को पढ़ने दो।
अमूल्य भेंट है कुदरत की वो,
उसका क्षय न होने दो।
मदमाती हरियाली को,
मेघों से आँख मिलाने दो।
करो न अत्याचार प्रकृति पर,
शाखों पे गुल खिलने दो।
चहकें खंजन-पपीहा द्रुम पर,
निशि -दिन उन्हें चहकने दो।
पाटो न नदी,झील,सरोवर,
ठंडी पवन को बहने दो।
ताल -तलैया की  छइयां में,
धूप -छाँव को हिलने दो।
धरा न बाँटो,सागर न बाँटो,
भगवान को न बँटने दो।
एक शाख के फूल हैं सब,
न खून किसी का बहने दो।
हवस न पालो किसी चीज का,
निर्भय होकर चलने दो।
क्या हिन्दू,क्या मुस्लिम,सिख,
एक साज में सजने दो।
टपके न आंसू गरम किसी का,
हर आँखों को हँसने दो।
खिलती मानवता का सिर,
जग में कहीं न झुकने दो।
नभ की बाँहों में कोई,
यदि जाता है,तो जाने दो।
कोई बसाये चाँद पे बस्ती,
तो मंगल पर भी बसने दो।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार(,मुंबई

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