ग़ज़ल--
दिल की चादर ज़रा बड़ी कर ली
घर की बगिया हरीभरी कर ली
ग़म के सारे पहाड़ ढहने लगे
दिल्लगी से जो दोस्ती कर ली
दिल में इक चाँद को बिठा कर के
हमने हर रात चाँदनी कर ली
जिसको दिल में बसा के रख्खा है
रोज़ उसकी ही बंदगी कर ली
जैसी महबूब की रही ख़्वाहिश
हमने वैसी ही ज़िन्दगी कर ली
जब भी शाख-ए-गुलाब मुरझाई
सींच कर अश्क से हरी कर ली
तेरे वादे का था यक़ी *साग़र*
पार इससे ही इक सदी कर ली
🖋️विनय साग़र जायसवाल
25/2/2021
2122-1212-22
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