रास्ते निकलते हैं!
रास्ते निकालो तो रास्ते निकलते हैं,
आंधी- तूफानों से चराग़ कहाँ डरते हैं।
झाँकती है जब- जब वो अपने दरीचे से,
मल-मल के आँखों को लोग उसे देखते हैं।
वो जब उतरती है उन तंग गलियों में,
करती शरारत हवा वो दुपट्टे सरकते हैं।
इंसानी फितरत ये रोज -रोज हैं लड़ते,
मयकदे में जाकर के साथ- साथ पीते हैं।
कर लो बराबरी की चाहे भी जो बातें,
होकर जमीं देखो, आसमां में उड़ते हैं।
हालचाल दुनिया की अच्छी नहीं यारों,
पूछने से पहले ही, घर में रो लेते हैं।
राम- नाम के ऊपर रोज कुछ हैं ठगते,
फूलों की शैया पर करवटें बदलते हैं।
तपकर के बादल वो आसमां में जाते हैं,
खोलकर दिल अपना झमाझम बरसते हैं।
हम नहीं सुधरेंगे, ये दुनिया सुधर जाए,
ऊपरी कमाई पर सारा ध्यान रखते हैं।
बाजीगरी आंकड़ों की जिसे भी आ जाए,
देखो सियासत में सिक्के उसके चलते हैं।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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