पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास, नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास,
नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास।

आसूं औ दहशत का आलम हर नयनों में उभर रही,
जानें कितने आशाओं पर बज्र पात सी मचल रही।
ऐ मरने वालों सुनों गुज़ारिश वोट डालते जाओ तुम,
निष्ठुर  समय  बता  रहा  है  मृत्यु  द्वारे  सजल  रही।
राजनीति का चाबुक ऐसा अटक रही हैं सांसें अब,
जीत रही सियासत देखो हारी ले मानवता उपहास।
पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास,
नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास।

सांसों का संकट है फैला कभी यहां और कभी वहां,
सभी दलों के नेता सारे एक्जिट पोल पर लड़े जहां।
कहीं बिलखता बचपन है तो कहीं जवानी डूब गयी,
देखो सारे श्रवण तुम्हारे घातक बाणों से मरे जहां।
कटुता-कपट-कुसंगत तेरे पर उपदेश कुशल बहुतेरे,
सब कालखण्ड में अंकित होंगें ले स्वर्णिम इतिहास।
पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास,
नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास।

जब भी रावण खड़ा सामने दिख जाये लो चेत,
संहारक हैं कृष्ण धरा की करें श्रीराम सा हेत।
उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम  हाहाकार  चहुंओर,
लेकिन तृष्णा नहीं गयी है हैं गज़ब चरित्र के प्रेत।
इस समर का पहर बहुत है बाकी करनी है गणना,
ताप-तपित धरती है व्याकुल स्वार्थ लोभ बनवास
पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास,
नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास।

है सुविधा अनगिनत जहां में फिर भी संकट है गहरा,
सुख के सब सामान जुटाके देते है मरघट में पहरा।
हर प्राणी है सहमा-सहमा मृत्यु का आभास लिए,
सदा सत्य है मृत्यु लेकिन फिर भी जीवन है गहरा।
नैतिकता के रखवाले सारे सच्चे साधक नहीं रहे,
अब सम्प्रभुता पाने की खातिर कर डाले बकवास।
पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास,
नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास।

          © दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

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