विनय साग़र जायसवाल

गीत--

संयम के आधारों से अब ,फूटे मदरिम फुब्बारे हैं
कंचन काया पर राम क़सम, यह नैना भी कजरारे हैं

तेरे नयनों में मचल रही, मेरे जीवन की अभिलाषा 
कुछ और निकट आ जाओ तो,बदले सपनों की परिभाषा 
है तप्त बदन हैं तृषित अधर,कबसे है यह तन मन प्यासा  ।।
तुम प्रेमनगर आ कर देखो ,महके-महके गलियारे हैं ।।
कंचन काया-----

बरसा दो प्रेम सलिल आकर ,इस जलते नंदन कानन में
अंतस स्वर अब तक प्यासे हैं ,मेघों से छाये सावन में 
कितना उत्पात मचाती हैं ,तेरी छवियाँ उर-आँगन में 
तुम राग प्रणय का गाओ तो ,हँसते-खिलते उजियारे हैं ।।
कंचन काया -----

तुम साँझ-सवेरे दर्पण में ,अपना श्रंगार निहारोगी
मेरे सपनो के आँगन में, यौवन के कलश उतारोगी 
कब प्रणय-निमंत्रण आवेदन ,इन नयनों के स्वीकारोगी 
आखिर तुमको भी पता चले ,हम कब से हुए तुम्हारे हैं ।।
कंचन काया ----

आँचल में सुरभित गन्ध लिये,बहती है चंचल मस्त पवन
सच कहता हूँ खिल जायेगा, तेरे उर का हर एक सुमन
पंछी सा इत उत डोलेंगे ,झूमेंगे धरती और गगन 
अपने स्वागत में ही तत्पर ,जगमग यह चाँद-सितारे हैं ।।
कंचन काया------

मानो मन के हर कोने में ,तेरी आहट ही रहती हो 
सुर-सरिता बन कर तुम निशिदिन ,अंतस-सागर को भरती हो 
शुचि स्वप्नों का भण्डार लिये, मेरे ही लिये संवरती हो 
रेशम कुंतल बिखराओ तुम ,व्याकुल कितने अँधियारे हैं ।।
कंचन काया ----

संयम के आधारों से अब ,फूटे मदरिम फुब्बारे हैं ।
कंचन काया पर राम क़सम, यह नैना भी कजरारे हैं ।।

🖋️विनय साग़र जायसवाल,बरेली
20/1/2007

कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...