रामकेश एम यादव

कुदरत!

कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।
निर्ममता से काटे जंगल,
हरियाली उसकी उजाड़ दिया।

पावस ऋतु जो नहलाती थी,
झूलों पे वो मुस्काती थी।
कोमल -कोमल उन अंगों से,
बड़े प्यार से सहलाती थी।
उन कजरारे मेघों को हमने
आखिर क्यों दुत्कार दिया।
कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।

पहले तो आशिक थे वन के,
होते थे वो सादे मन के।
किए न सौदा कभी धरा का,
थे महकते चाल -चलन के।
नदिया, पर्वत, पवन कुचलकर,
हमने कारोबार किया।
कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।

भरे थे नभ में कितने परिन्दे,
एटम -बम से हुए हम नंगे।
बरस रही है मौत ये कैसी,
राह से भटके हम क्यों बन्दे?
अंत नहीं मेरी हवस की यारों!
हमने जीवों का संहार किया।
कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।

सजाओ मन तब सजेगा जंगल,
चारों तरफ हो मंगल-मंगल।
छनके प्रकृति की झांझरिया,
गाँव -गाँव हो कुश्ती -दंगल।
कैसे समझेगा प्रकृति का बैरी,
सजी दुल्हन जो तार-तार किया।
कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...