ग्यारहवाँ-7
*ग्यारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-7
सुनतै सभ जन भए अचंभित।
भईं नंद सँग जसुमति चिंतित।।
सभ जन आइ निहारैं किसुनहिं।
करैं सुरछा सभ मिलि सिसुनहिं।।
यहि क अनिष्ट करन जे चाहा।
मृत्य-अगिनि हो जाए स्वाहा।।
आवहिं असुर होय जनु काला।
मारहिं उनहिं जसोमति-लाला।।
साँच कहहिं सभ संत-महाजन।
होय उहइ जस कहहिं वई जन।।
कहे रहे जस गरगाचारा।
वैसै होय कृष्न सँग सारा।।
मारि क असुरहिं किसुन-कन्हाई।
सँग-सँग निज बलरामहिं भाई।।
गोप-सखा सँग खेलहिं खेला।
नित-नित नई दिखावहिं लीला।।
उछरैं-कूदें बानर नाई।
खेलैं आँखि-मिचौनी धाई।।
दोहा-नटवर-लीला देखि के,सभ जन होंहिं प्रसन्न।
भूलहिं भव-संकट सभें,पाइ प्रभू आसन्न।।
संग लेइ बलरामहीं,कृष्न करहिं बहु खेल।
लीला करैं निरन्तरहिं,ब्रह्म-जीव कै मेल।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें