डॉ0 हरि नाथ मिश्र

ग्यारहवाँ-7
  *ग्यारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-7
सुनतै सभ जन भए अचंभित।
भईं नंद सँग जसुमति चिंतित।।
      सभ जन आइ निहारैं किसुनहिं।
      करैं सुरछा सभ मिलि सिसुनहिं।।
यहि क अनिष्ट करन जे चाहा।
मृत्य-अगिनि हो जाए स्वाहा।।
    आवहिं असुर होय जनु काला।
    मारहिं उनहिं जसोमति-लाला।।
साँच कहहिं सभ संत-महाजन।
होय उहइ जस कहहिं वई जन।।
    कहे रहे जस गरगाचारा।
    वैसै होय कृष्न सँग सारा।।
मारि क असुरहिं किसुन-कन्हाई।
सँग-सँग निज बलरामहिं भाई।।
    गोप-सखा सँग खेलहिं खेला।
   नित-नित नई दिखावहिं लीला।।
उछरैं-कूदें बानर नाई।
खेलैं आँखि-मिचौनी धाई।।
दोहा-नटवर-लीला देखि के,सभ जन होंहिं प्रसन्न।
         भूलहिं भव-संकट सभें,पाइ प्रभू आसन्न।।
        संग लेइ बलरामहीं,कृष्न करहिं बहु खेल।
        लीला करैं निरन्तरहिं,ब्रह्म-जीव कै मेल।।
                    डॉ0 हरि नाथ मिश्र
                     9919446372

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