डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बारहवाँ-4
  *बारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-4
सुनहु परिच्छित किसुन-गोपाला।
जानहिं बिधिवत तीनिउ काला।।
   भूत-भविष्य-आजु प्रभु जानैं।
   छूत-अछूत-भेद नहिं मानैं।।
समदरसी प्रभु अंतरजामी।
रच्छहिं निज सेवक-अनुगामी।।
    जस उड़ि तिनका परे अगिनि मा।
     भभकत जरै तुरत ही वहि मा।
वइसहि परिगे सभ मुख माहीं।
जठर अगिनि मा जरिहैं ताहीं।।
    छिन भर मा तब किसुन-कन्हाई।
    अजगर-मुख मा गए समाई।।
किसुन-गमन लखि अजगर-मुख मा।
चिंतित सुरहिं  भए सभ नभ मा।।
    कंसहिं औरु अघासुर मीता।
     लखि प्रबेस प्रभु मुदित-अभीता।।
तुरतै प्रभु निज देह बढ़ावा।
अघासुरै बहु पीरा पावा।।
     गला अघासुर रुधिगा तुरतइ।
     दुइनिउ आँखि पुतरि गे उल्टइ।।
साँसहिं थमी निकसि गे प्राना।
इंद्रिय सुन्य बदन बिनु जाना।।
     अजगर थूल बदन तें निकसी।
     अद्भुत जोति चहूँ-दिसि बिगसी।।
कछु पल ठाढ़ि रही ऊ तहवाँ।
पुनि भइ लोप किसुन लखि उहवाँ।।
    जाइ समाइ गई सुरगनहीं।
    नभ तें सुमनहिं देव बरसहीं।।
दोहा-सभें कीन्ह अभिनंदनइ, किसुनहिं साथे-साथ।
         विद्याधर अरु अप्सरा,गाइ-नाचि नत माथ।
                       डॉ0हरि नाथ मिश्र
                        9919446372

कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...