*तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-2
ग्वालन मध्य किसुन अस सोहैं।
कमल-कली जस दल बिच मोहैं।।
पुष्पइ-पत्ता,पल्लव-छाला।
छींका-अंकुर-फलहिं निराला।।
पाथर-पात्र बनाइ क सबहीं।
निज-निज रुचि कै भोजन करहीं।।
केहू हँसै हँसावै कोऊ।
लोट-पोट कोउ हँसि-हँसि होऊ।।
सिंगी बगल कमर रह बँसुरी।
कृष्न-छटा बहु सुंदर-सुघरी।।
दधि-घृत-सना भात कर बाँये।
निम्बु-अचारहि अँगुरि दबाये।।
ग्वाल-बाल बिच किसुनहिं सोहैं।
उडुगन मध्य जथा ससि मोहैं।।
एकहि प्रभू सकल जगि भोक्ता।
ग्वालन सँग करि भोजन सोता।।
लखि अस छटा देव हरषाहीं।
नभ तें सबहिं सुमन बरसाहीं।।
भए गोप सभ भाव-बिभोरा।
बछरू चरत गए बन घोरा।।
करउ न चिंता भोजन करऊ।
अस कहि किसुन घोर बन गयऊ।।
करैं अभीत भगत जे भीता।
बिपति भगावैं प्रभु बनि मीता।।
दधि-घृत-सना कौर लइ भाता।
बछरू हेरन चले बिधाता।।
तरु-कुंजन अरु गुहा-पहारा।
मिलहिं न बछरू सभें निहारा।
सुनहु परिच्छित ब्रह्मा-मन मा।
अस बिचार उपजा वहि छन मा।।
देखन औरउ लीला चाहहिं।
बादइ मोच्छ अघासुर पावहिं।।
सोरठा-ब्रह्मा माया कीन्ह,भेजा किसुनहिं बनहिं महँ।
तुरत भेजि पुनि दीन्ह,सभ ग्वालन निरजन जगहँ।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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