दोहे
दिनकर-लाली भोर लख,व्यग्र चित्त हो शांत।
अद्भुत महिमा भोर की,करे मुदित हिय क्लांत।।
साँझ-सवेरे,रात-दिन,नित श्रम करे किसान।
क्षुधा-तृप्ति सबकी करे, है जो कर्म महान।।
हों हर्षित पत्ते सभी,जब होती बरसात।
अवनि पहन धानी चुनर,दिखती है बलखात।
जहाँ एकता-प्रेम है,और अतिथि-सत्कार।
सुख-निवास बस है वही,घर-आँगन-परिवार।।
जलता नहीं अलाव अब,नहीं लगे चौपाल।
बदल गए हैं गाँव सब,सबकी उल्टी चाल।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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