डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-5
*तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5
जब रह रात पाँच-छः सेषा।
कालहिं बरस एक अवसेषा।।
    बन मा लइ बछरू तब गयऊ।
    किसुन भ्रात बलदाऊ संघऊ।।
सिखर गोबरधन पै सभ गाई।
हरी घास चरि रहीं अघाई।।
     लखीं चरत निज बछरुन नीचे।
     उछरत-कूदत भरत कुलीचे।।
बछरुन-नेह बिबस भइ धाईं।
रोके रुक न कुमारग आईं।।
    चाटि-चाटि निज बछरुन-देहा।
    लगीं पियावन दूध सनेहा।।
नहिं जब रोकि सके सभ गाईं।
गोप कुपित भइ मनहिं लगाईं।।
    पर जब निज-निज बालक देखा।
    बढ़ा हृदय अनुराग बिसेखा।।
तजि के कोप लगाए उरहीं।
निज-निज लइकन तुरतै सबहीं।।
    पुनि सभ गए छाँड़ि निज धामा।
     भरि-भरि नैन अश्रु अभिरामा।।
भयो भ्रमित भ्राता बलदाऊ।
अस कस भयो कि जान न पाऊ।।
     कारन कवन कि सभ भे वैसै।
     मम अरु कृष्न प्रेम रह जैसै।।
जनु ई अहहि देव कै माया।
अथवा असुर-मनुज-भरमाया।।
    अस बिचार बलदाऊ कीन्हा।
    पर पुनि दिब्य दृष्टि प्रभु चीन्हा।।
माया ई सभ केहु कै नाहीं।
सभ महँ केवल कृष्न लखाहीं।।
दोहा-बता मोंहि अब तुम्ह किसुन, अस काहें तुम्ह कीन्ह।
        तब बलरामहिं किसुन सभ,ब्रह्म-भेद कहि दीन्ह।।
                         डॉ0हरि नाथ मिश्र।
                         9919446372

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