डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-6
  *तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-6
बरस-काल एक जब बीता।
ब्रह्मा आए ब्रजहिं अभीता।।
 लखतै सभ गोपिन्ह अरु बछरू।
खात-पियत रह उछरू-उछरू।।
    भए अचम्भित भरमि अपारा।
     लखहिं सबहिं वै बरम्बारा।।
किसुन कै माया समुझि न पावैं।
पुनि-पुनि निज माया सुधि लावैं।।
     असली-नकली-भेद न समुझहिं।
      निज करनी सुधि कइ-कइ सकुचहिं।।
जदपि अजन्मा ब्रह्मा आहीं।
किसुनहिं माया महँ भरमाहीं।।
     भरी निसा-तम कुहरा नाईं।
     जोति जुगुनु नहिं दिवा लखाईं।।
वैसै छुद्र पुरुष कै माया।
कबहुँ न महापुरुष भरमाया।।
    तेहि अवसर तब ब्रह्मा लखऊ।
बछरू-गोप कृष्न-छबि धरऊ।।
   सबहिं के सबहिं पितम्बरधारी।
   सजलइ जलद स्याम बनवारी।।
चक्रइ-संख,गदा अरु पद्मा।
होइ चतुर्भुज बिधिहिं सुधर्मा।।
    सिर पै मुकुट,कान महँ कुंडल।
    पहिनि हार बनमाला भल-भल।।
बछस्थल पै रेखा सुबरन।
बाजूबंद बाहँ अरु कंगन।।
   चरन कड़ा,नूपुर बड़ सोहै।
    कमर-करधनी मुनरी मोहै।।
नख-सिख कोमल अंगहिं सबहीं।
तुलसी माला धारन रहहीं।।
     चितवन तिनहिं नैन रतनारे।
     मधु मुस्कान अधर दुइ धारे।।
दोहा-लखि के ब्रह्मा दूसरइ,अचरज ब्रह्मा होय।
        नाचत-गावत अपर जे,पूजहिं देवहिं सोय।।
       अणिमा-महिमा तें घिरे,बिद्या-माया-सिद्ध।
        महा तत्व चौबीस लइ, ब्रह्मा दूजा बिद्ध।
                     डॉ0हरि नाथ मिश्र
                      9919446372

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अखिल विश्व काव्यरंगोली परिवार में आप का स्वागत है सीधे जुड़ने हेतु सम्पर्क करें 9919256950, 9450433511