डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पहला-4
क्रमशः......*पहला अध्याय*
संकरबर्ण होंय कुलघाती।
नरकहिं जाँय सकल संघाती।।
       पिण्डदान-जलक्रिया अभावहिं।
       केहु बिधि पितर मुक्ति नहिं पावहिं।।
अनंत काल रह नरक-निवासा।
होवहि जब कुल-धर्महि-नासा।।
      सुनहु जनर्दन हे बर्षनेया।
      कुल-बिनास नहिं लेबउँ श्रेया।।
मिलै न सुख निज कुल करि नासा।
सुनहु हे माधव,मम बिस्वासा ।।
      करिअ न जानि-बूझि बिषपाना।
       जे अस करै न नरक ठेकाना।।
राज-भोग,सुख-भोग न मोहा।
हम बुधि जनहिं न कछु सम्मोहा।।
       अस्तु,सुनहु हे मीत कन्हाई।
       अघ करि,जदि सुख, मोहिं न भाई।।
दोहा-रन-भुइँ जदि धृतराष्ट्र-सुत,सस्त्रहीन मोहिं जान।
        घालहिं,मों नहिं रोष कछु,तदपि चाहुँ कल्यान।।
        अस कहि के अर्जुन तुरत,जुद्ध मानि दुर्भाग।
        बान औरु धनु त्यागि के,बैठे रथ-पछि-भाग।।
                         डॉ0हरि नाथ मिश्र
                          9919446372
                     पहला अध्याय समाप्त।

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