ग्यारहवाँ-1
*ग्यारहवाँ अध्याय*(कृष्णचरितबखान)-1
भई भयंकर ध्वनि तरु गिरतै।
दुइ तरु अर्जुन भुइँ पे परतै।।
बाबा नंद औरु सभ गोपी।
बज्र-पात जनु भयो सकोपी।।
सोचि-सोचि सभ भए अचंभित।
अस कस भयो सबहिं भे संकित।।
डरतइ-डरत सभें तहँ गयऊ।
लखे बृच्छ अर्जुन भुइँ परऊ।।
जदपि न जानि परा कछु कारन।
लखे कृष्न खैंचत रजु धारन।।
ऊखल-बँधी कमर सँग रसरी।
तरुहिं फँसल रह खींचत पसरी।।
अस कस भवा सोचि उदबिग्ना।
मन सभकर रह सोचि निमग्ना।।
कछु बालक तहँ खेलत रहऊ।
लगे कहन सभ किसुना करऊ।।
ऊखल फँसा त खैंचन लागे।
गिरत बिटप लखि हम सभ भागे।।
निकसे तहँ तें दुइ तनधारी।
सुघ्घर पुरुष स्वस्थ-मनहारी।।
पर ना होय केहू बिस्वासा।
किसुन उखरिहैं तरु नहिं आसा।।
अति लघु बालक अस कस करई।
नहिं परितीति केहू मन अवई ।।
सुधि करि लीला पहिले वाली।
सभ कह किसुन होय बलसाली।।
प्रिय प्रानहुँ तें लखि निज सुतहीं।
रसरी बँधा कृष्न जहँ रहहीं।।
बाबा नंद गए तहँ तुरतइ।
किसुनहिं मुक्तइ कीन्ह वहीं पइ।।
कबहुँ-कबहुँ प्रभु कृपा-निकेता।
नाचहिं ठुमुकि गोपि-संकेता।।
खेल देखावैं जस कठपुतली।
नाचहिं किसुन पहिनि वस झिंगुली।।
लावहिं कबहुँ खड़ाऊँ-पीढ़ा।
आयसु लइ गोपिन्ह बनि डीढ़ा।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें