डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पहला-3
क्रमशः.....*पहला अध्याय*
संख युधिष्ठिर बिजय अनंता।
नकुल सुघोषय घोष दिगंता।।
    संखइ मणिपुष्पक सहदेवा।
     संख-नाद कीन्ह कर लेवा।।
दोहा-कासिराज-धृष्टद्युम्न अरु, सात्यकि औरु बिराट।
        द्रुपद-सिखण्डि-अभिमन्यु अपि,औरु सभें सम्राट।।
        कीन्ह भयंकर संख-ध्वनि,द्रोपदि पाँचवु पुत्र।
         संख-नाद, रन-भेरि तें, ध्वनित सकल दिसि तत्र।।
भय बड़ कम्पित मही-अकासा।
सुनतहि कुरु-दल भवा उदासा।।
     कर गहि निज धनु कह तब अर्जुन।
     हे हृषिकेश बचन मम तुम्ह सुन।।
लावव रथ दोउ सेन मंझारे।
हे अच्युत,श्री नंददुलारे।।
     चाहहुँ मैं देखन तिन्ह लोंगा।
      जे अहँ करन जुद्ध के जोगा।।
जे जन जुद्ध करन यहँ आये।
दुर्जोधन के होय सहाये।।
    तब रथ लाइ कृष्न किन्ह ठाढ़ा।
    मध्य सेन दोउ प्रेम प्रगाढ़ा।।
भिष्म-द्रोण सब नृपन्ह समच्छा।
सेनापति जे कुरु-दल दच्छा।।
     लखहु सभें कह किसुन कन्हाई।
     हे अर्जुन निज लोचन बाई।।
पृथापुत्र अर्जुन लखि सबहीं।
भ्रात-पितामह-मामा तहँहीं।।
     औरु ससुर-सुत-पौत्रहिं-मीता।
      सुहृद जनहिं लखि भे बिसमीता।।
लखि तहँ सकल बंधु अरु बांधव।
कुन्तीसुत कह सुनु हे माधव।।
दोहा-जुद्ध करन लखि अपुन जन,सिथिल होय मम गात।
      कम्पित बपु मुख सूखि गे, निकसत नहिं कछु बात।।
गाण्डिव धनु कर तें गिरै, त्वचा जरै जनु मोर।
सक न ठाढ़ि मम मन भ्रमित,सुनहु हे नंदकिसोर।।
               डॉ0हरि नाथ मिश्र
               9919446372 क्रमशः.......

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