ग्यारहवाँ-5
*ग्यारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5
गोपी-गोप-गाय-हितकारी।
बृंदाबन हर बिधि उपकारी।।
भेजउ पहिले सभ गउवन कय।
रहँ जे संपति हम लोगन्ह कय।।
सभ जन बाति मानि उपनंदा।
छकड़ी-लढ़ीया लेइ अनंदा।।
कीन्ह पयान सभ बृंदाबनहीं।
झुंड लेइ गो-बछरू सँगहीं।।
भूषन-बसन पहिनि गोपी सब।
लीला किसुनइ गावत अब-तब।।
निज-निज छकड़हिं बैठि क चलहीं।
हरषित-प्रमुदित,मिलि-जुलि सबहीं।।
गो-गोपिहिं लइ छकड़ा आगे।
तुरुही रहत बजावत भागे।।
गोपी-मंडल पैदल चलहीं।
साथहिं-साथ पुरोहित रहहीं।।
बालक-बृद्ध सकल ब्रज-नारी।
लढ़ीयन भरी समग्री सारी।।
हो निस्चिन्त चलहिं सभ आगे।
धनु-सर लइ गोपहिं पछि भागे।।
रोहिनि-जसुमति दुइनउँ माता।
भूषन-बसन धारि जे भाता।।
लइ बलदाऊ-किसुनहिं लढिया।
बइठि चलहिं करि बातिहिं बढ़िया।।
सुनि-सुनि तोतलि बोली तिन्हकर।
जाइँ उ लोटि-पोटि हँस-हँस कर।।
बृंदाबन प्रबेस सभ कइके।
अर्धचंद्र इव लढ़यन धइ के।।
एक सुरच्छित स्थल कीन्हा।
बछरू-गाइ उहाँ रखि दीन्हा।।
दोहा-बृंदाबन अति रुचिर बन,गोबरधन गिरि-धाम।
जमुना-तट मन-भावनइ, बलरामहिं-घनस्याम।।
बलदाऊ अरु किसुन मिलि, सबहिं अनंदहिं देहिं।
गोकुल इव बृंदाबनइ, तोतलि बानि सनेहिं।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र।
9919446372
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