डॉ0 हरि नाथ मिश्र

ग्यारहवाँ-5
   *ग्यारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5
कछुक काल बीते दोउ भाई।
लगे चराने बछरू जाई।।
    जहँ रहँ गऊ चरैं तहँ बछरू।
    निज पग किसुन बजावैं घुघुरू।।
कबहुँ बजाय बाँसुरी नटवर।
चित-मन-पीर हरैं जग प्रियवर।।
     फेंकैं ढेला-गोली कबहूँ।
      बिगैं गुलेल राम सँग हुबहू।।
खेलहिं खेल कबहुँ दोउ भाई।
गाय-बैल बनि धाई-धाई ।।
     कबहुँ साँड़ बनि हुँकड़हिं दोऊ।
     बोलहिं जनु पंछी बनि सोऊ।।
कोयल-बानर-मोरहिं बोली।
बोलि-बोलि वै करहिं ठिठोली।।
     बनि साधारन बालक नाईं।
     खेलत अइसइ रहे गोसाईं।।
एक बेरि बलराम-कन्हाई।
जमुना-तट रह गाय चराई।।
    दइत एक तहवाँ तब आवा।
     रूप बच्छ गो-झुंडहिं जावा।।
जानि दइत इक बच्छहि रूपा।
वहि लखाय बलराम अनूपा।
    पकरि पुच्छ तिसु किसुन पछारे।
    फेंकि गगन तरु कैथय डारे।।
कैथ तरू पे गिरतै दैता।
छटपटाइ भे प्रानहिं रहिता।।
   ग्वाल-बाल सभ करैं प्रसंसा।
   मारे किसुन बृषभ जस भैंसा।।
वाह-वाह सभ लागे कहने।
सुमन सुरहिं सभ लगे बरसने।।
          डॉ0 हरि नाथ मिश्र
          9919446372


ग्यारहवाँ-4
*ग्यारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-4
बाबा नंद सकल ब्रजबासी।
होइ इकत्रित सबहिं उलासी।।
आपसु मा मिलि करैं बिचारा।
भवा रहा जे अत्याचारा।।
     ब्रज के महाबनय के अंदर।
     इक-इक तहँ उत्पात भयंकर।।
गोपी एक रहा उपनंदा।
जरठ-अनुभवी मीतइ नंदा।।
    कह बलराम-किसुन सभ लइका।
    खेलैं-कूदें नहिं डरि-डरि का ।।
यहि कारन बन तजि सभ चलऊ।
कउनउ अउर जगह सभ रहऊ।।
      सुधि सभ करउ पूतना-करनी।
       उलटि गयी लढ़ीया यहि धरनी।।
अवा बवंडर धारी दइता।
उड़ा गगन मा किसुनहिं सहिता।।
     पुनि यमलार्जुन तरु महँ फँसई।
     सिसू किसुन आपुनो कन्हई।।
बड़-बड़ पून्य अहहि कुल-देवा।
किसुनहिं बचा असीषहिं लेवा।।
     करउ न देर चलउ बृंदाबन।
      बछरू-गाइ समेतहिं बन-ठन।।
हरा-भरा बन बृंदाबनयी।
पर्बत-घास-बनस्पति उँहयी।।
      बछरू-गाइ सकल पसु हमरे।
      चरि-चरि घास उछरिहैं सगरे।।
                डॉ0हरि नाथ मिश्र
                 9919446372

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